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________________ अष्टमोऽधिकारः १५३ तब से लेकर पवित्रात्मा, धर्मवत्सल वह विशेष रूप से अपने पुत्र के समान उसका पालन करने लगा ।। १११ ।। एक बार आकर वह वन में मनोहर गंगातीर पर गाय, भैंस आदि के समूह को लाकर चरा रहा था ।। ५१२ ।। तब वह सावधान होकर पवित्र वृक्ष के मूल में सुख के धाम, संसार के हितकारी अर्हन्त का नाम जपने लगा । ११३ ॥ जब वह सुखपूर्वक स्थित था, तब अन्य ग्वाला आया | उससे बोला-हे मित्र ! तुम्हारी भैंसें दूसरे किनारे पर जा रही हैं, शीघ्र आकर इस समय उन्हें ले आओ। उसके इस प्रकार वचन को सुनकर महासाहस से युक्त सुधी-भव्यात्मा सुभग भी गंगातट पर जाकर मनोहर उसो मन्त्र का भलीभाँति सच्चारण कर वहाँ पर जल में छलांग लगाई। वहाँ पर खोटे आशय वाले मछुवारों के द्वारा सामने लगाई हुई कष्टदायक तीक्ष्ण काष्ठ थी ।। ११४-११५.११६-११७ ।। पापी दुर्जन के समान तीक्ष्ण होने के कारण उसके ऊपर वह शीघ्र गिरा और तब उसका पेट विदीर्ण हो गया ।। ११८।। वहाँ पर अत्यधिक रूप से मन्त्र का स्मरण करते हुए मन में निदान किया। मन्त्रराज की कृपा से मैं इस पुण्यात्मा सेठ के पुत्र होऊँ । दस प्राणों से रहित होकर वृषभदास सेठ के जिनमती के शुभ जदर में तुम सुदर्शन नामक कुल दीपक सुपुत्र हुए हो। जैनधर्म की धुरा को धारण करने वाले धीर तुम चरमशरीरी हो ।। ११२-१२०-१२१ ॥ तुम दाता हो, भोक्ता हो, विचारश हो और श्रावकाचार में तत्पर हो । परमेष्ठि के महामन्त्र के प्रभाव से क्या नहीं होता है ।। १२२ ।। __ जिससे शत्रु मित्र जैसा आचरण करने लगता है, साँप माला हो जाता है, विष सीन अमृत के समान हो जाता है, समुद्र स्थल के समान आचरण करता है ।। १२३ ।। जिस मन्त्रराज से पृथ्वी पर अग्नि जल के समान आचरण करतो है । इसके प्रभाव का क्या वर्णन किया जाय । स्वर्ग और मोक्ष भी सम्भव हे भव्य ! परमेष्ठी के महामन्त्र का प्रभाव भुवनत्रयगोचर है, उसे तुमने प्रत्यक्ष देखा है ।। १२५ ।।
SR No.090479
Book TitleSudarshan Charitram
Original Sutra AuthorVidyanandi
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages240
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size4 MB
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