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________________ rueमोऽधिकारः इस प्रकार वह भूपाल पुत्र-पौत्रादि परिवार से घिरा हुआ से राज्य करता हुआ सुखपूर्वक स्थित था || ४४ || १३५ अपने पुण्य एक बार उस राजा के मनोहर सिंह द्वार पर लोगों ने हे देव ! रक्षा करो, रक्षा करो, इस प्रकार क्रन्दन किया ।। ४५ ।। उसे 'सुनकर राजा ने अनन्तबुद्धि नामक मन्त्री से कहा- यह क्या है ? वह मन्त्री बोला - हे राजन् ! सुनो || ४६ ॥ यहाँ से दक्षिण दिशा की ओर विन्ध्यगिरि पर महाबली व्याघ्र नामक भील है। उसकी कुरंगी नामक प्रिया है ॥ ४७ ॥ वह दुष्टात्मा व्याघ्र वह अहंकार के मद से मत्त है ॥ ४८ ॥ व्यान्न के समान क्रूर है अथवा अधम यम है । रहता है और मिल धनुर्दण्ड लिए रहता हे देव ! वह पापी प्रजा को सदा पीड़ित करता रहता है | अतः है प्रभो ! यह प्रजा अत्यधिक कन्दन कर रही है ॥ ४९ ॥ मन्त्री के वाक्य को सुनकर भूपाल नामक राजा क्रोध से बोलामेरी प्रजा को दुःख देनेवाला यह दुर्बुद्धि भील कौन है ? ॥ ५० ॥ तथा सेनापत्ति को आदेश दिया - शीघ्र ही जाओ । दर्प में स्थित मेरे शत्रु को जीतकर आओ ।। ५१ ।। सचमुत्र, जो प्रजापालन में तत्पर प्रसिद्ध उत्तम राजा होते हैं, वे प्रजा को सताना सहन नहीं करते हैं ॥ ५२ ॥ तब सार रूप सेना से युक्त सेनापति शीघ्र ही जाकर वेगपूर्वक भिल्लराज के द्वारा जीत लिया गया ।। ५३ ।। पश्चात् मानभङ्ग से संत्रस्त होकर बहु अपने नगर में आ गया। पुण्य के बिना लोक में कहाँ से शुभ विजय प्राप्त होती है ? ॥ ५४ ॥ अनन्तरकोप से जाते हुए नेपाल नामक राजा से लोकपाल नामक पुत्र प्रणाम कर बोला । हे राजन् ! सुनो || ५५ ॥ मुझ सेवक के रहते हुए श्रीमान् क्यों जा रहे हैं ? इस प्रकार कहकर समस्त सार रूप सेना के सहित जाकर, युद्ध कर, उस भील को मारकर अपने नगर को आ गया । लोक में अपने पिता के द्वारा जो दुःसाध्य हो, उसे उसका पुत्र सिद्ध कर देता है ।। ५६-५७ ।।
SR No.090479
Book TitleSudarshan Charitram
Original Sutra AuthorVidyanandi
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages240
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size4 MB
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