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________________ अष्टमोऽधिकारः १३३ हे देव! तुम तीनों लोकों में पूज्य हो, तुम सदा तीनों लोकों के गुरु हो, तुम सदा तीनों लोकों के बन्धु हो, तुम सदा तीनों लोकों के स्वामी हो ॥ ३० ॥ कर्मों को जोतने से तुम परमार्थ रूप से जिन हो। तुम ही रत्नत्रय के सारस्वरूप मोक्षमार्ग हो ॥ ३१ ॥ हे परमार्थ को जानने वाले ! पाप रूपी शत्रु का हरण करने से तुम हर हो । भव्यों को सुखकारी होने से तुम मोक्षदायी शंकर हो ॥ ३२ ॥ ज्ञान की अपेक्षा भुवनव्यापी होने से तुम विश्वपालक विष्णु हो । तुम सदा सुगति को ले जाने वाले हो। तुम धर्मतीर्थ के करने वाले बुद्धिमान हो || २३ || तुम दिव्य चिन्तामणि हो । निश्चित रूप से तुम कल्पवृक्ष हो । तुम्हीं यहाँ इष्ट अर्थ की पूर्ति करने वाली कामधेनु हो ॥ ३४ ॥ तुम सिद्ध, बुद्ध, निराबाध, विशुद्ध और निरंजन हो । देवेन्द्र के द्वारा समचित चरणकमल तुम देवाधिदेव हो ॥ ३५ ॥ संसार के द्वारा वन्दन करने योग्य ! तुम्हें नमस्कार हो । तीनों लोकों के गुरु तुम्हें नमस्कार हो । है प्रभुश्रेष्ठ परमानन्ददायक, तुम्हें नमस्कार हो || ३६ ॥ मेरी जिनराज के प्रति अत्यधिक सुखदायिनी, दोनों लोकों में हितकारी, नित्य समस्त शान्ति करने वाली भक्ति हो ॥ ३७ ॥ इत्यादि जिनेन्द्र भगवान् की सम्पदा प्रदान करने वाली सम्यक् स्तुति कर, पुनः-पुनः नमस्कार कर अनन्तर भव्यशिरोमणि, विमलवाहन नामक ज्ञानी गुरु को नमस्कार कर । शुद्ध रत्नत्रय से युक्त तथा कुमत रूपो महान् अन्धकार के लिए सूर्य स्वरूप उनसे बोला - हे समस्त प्राणियों का हित करने वाले स्वामी ! हे मृति ! मेरे पूर्वजन्म के सम्बन्ध में आप कहिए ॥ ३८-४० ॥ कृपासिन्धु, भव्यजनों के बन्धु वे मुनि भी बोले । हे महाभव्य सुदर्शन ! तुम मेरे द्वारा कहे हुए के विषय में सुनो ॥ ४१ ॥ धर्म-कर्म से पवित्र इस भरत क्षेत्र के सुविख्यात विन्ध्यदेश के कौशल नामक नगर में, भूपाल नामक राजा था। उसकी वसुन्धरा रानी हुई । उन दोनों का शूरवीर, विचक्षण लोकपाल नामक पुत्र था ।। ४२-४३ ।।
SR No.090479
Book TitleSudarshan Charitram
Original Sutra AuthorVidyanandi
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages240
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size4 MB
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