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सप्तमोऽधिकारः
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वह सुनकर वह द्वारपाल अपने मन में डरकर हे माता ! तुम मुझ सेवक को क्षमा करो || १५ ||
मूढ़, मैं हृदय में व्रत, पूजादिक नहीं जानता हूँ । है शुभे ! आज से लेकर जो भी तुम लाओगी, उसे लाकर जो तुम्हें हितकर लगे, वह करना। मैं कुछ भी नहीं कहूँगा । निःशङ्ख होकर सदा आओ ।।१६-१७।
ऐसा कहकर वह उसके चरण मुगल में बार-बार लग गया । दोष करने पर यहाँ साधु लोग दीनवत्सल हो जाते हैं ॥ १८ ॥
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अतः हे माता, तुम निश्चित रूप से क्षमा करो । उसके द्वारा इस प्रकार प्रार्थना किए जाने पर बाय अपने घर आ गई
उसने प्रतिदिन समस्त द्वारपाल वश में कर लिए। आश्चर्य है, स्त्रियों के प्रपञ्च समूह का कौन पार पा सकता है || २० ||
अनन्तर अटष्मी के दिन सोपवास, जितेन्द्रिय सेठ मुनियों को नमस्कार कर तथा आरम्भ का परित्याग कर, शुद्ध वृद्धि से युक्त हो पश्चिम प्रहर में श्मसान में प्रस्थान करने हेतु उठा तब उसका वस्त्र कहीं फँस गया ।। २१-२२ ॥
अथवा वह इस बहाने कह रहा था कि तुम्हें आज नहीं जाना चाहिए। हे सुदर्शन ! तुम उपसर्ग के योग्य नहीं हो || २३ ॥
पुनः जब वह मार्ग पर जा रहा था तब निन्द्य गया दायीं ओर रेंकने लगा, इस प्रकार दुर्निमित्त हुआ || २४ ॥
कुष्ठी काला नाग भी पवन के सम्मुख हुआ। बड़ी कठिनाई से अन्त होने वाले नाना प्रकार के अपशब्द हुए || २५ |
श्रृगालियों ने उपसर्ग का सूत्रक दुःस्बर किया । फिर भी अपने व्रत में दृढ़चित सुदर्शन भी भयभीतं लोगों के लिए जिसका पार पाना कठिन है, जलती हुई चिताओं की भनकर अग्नि से भयानक, शब्द करते हुए पशुओं से जो व्याप्त था, जो यम के मन्दिर जैसा था, जिसमें राख का समूह उछल रहा था, दुष्ट के चित्त के समान समल था, ऐसे घोर श्मसान में जाकर वहाँ पर वह वृद्धिमान् मेरु के समान कायोत्सर्ग में स्थित हुआ । उसने इन्द्रियों को जीत लिया था, आशङ्का को जीत लिया था, मोह को जीत लिया था और इच्छाओं को जीत लिया था ।। २६-२९ ।।