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________________ षष्ठोऽध्यायः १०५ अथवा जो, जिस प्रकार का जहाँ अवश्यंभावी शुभाशुभ होता है, वहाँ उसी प्रकार उस लोक में अवश्य होता है, यह सुनिश्चित है ॥ १०९ ॥ मैं सर्वथा पराधीन हैं, अधिक क्या कर सकती हूँ। ऐसा सोचकर महारानी से बोली - हे पुत्री ! मेरे वचन सुनो ॥ १०२ ॥ एकपत्नोत से युक्त श्री सुदर्शन दुःसाध्य है । सात प्राकारों से वेष्टित भवन पुरुषों से अगम्य है ॥ १०३ ॥ यद्यपि ऐसा है, तथापि तुम्हारे प्राणों की रक्षा के लिए हृदय में इच्छा है । अथवा यहाँ पर दुराग्रह रूपी भूत है, उसका उपाय किया जाता है ॥ १०४ ॥ हे बाले ! मुग्धे ! जब तक मैं तुम्हारा वाञ्छित कार्य करतो हूँ, तब तक तुम्हें प्राण विसर्जन नहीं करना चाहिए ।। १०५ || उस रानी से पण्डिता इस प्रकार कहकर धीरज बँधाकर उसके उस कार्य को करने के लिए उद्यत हो गई || १०६ ॥ > ठीक ही है, लोक में कर्म के वशीभृत हुआ पराधीन पुरुष क्या शुभाशुभ कार्य नहीं करता है ? १०७ ॥ जो यहाँ कर्म का विजेता है, सैकड़ों इन्द्रों के द्वारा पूज्य हैं, केवलज्ञानरूपी दीपक हैं, समस्त गुणों से पूर्ण हैं, भव्य कमलों के समूह के लिए सूर्य हैं, परम मोक्ष सुखरूपी लक्ष्मी के स्वामी हैं, चिन्मय आत्मा स्वरूप के जिनदेव जयशील हों ॥ १०८ ॥ इस प्रकार सुदर्शनचरित में पञ्चनमस्कार माहात्म्य प्रदर्शक मुमुक्षु श्री विद्यानन्द विरचित कपिला निराकरण अभश्रमतो व्यामोह विजृम्भण व्यावर्णन नामक षष्ठ अधिकार समाप्त हुआ ।
SR No.090479
Book TitleSudarshan Charitram
Original Sutra AuthorVidyanandi
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages240
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size4 MB
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