SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 115
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ षष्ठोऽधिकारः तुम्हारे अतिरिक्त कोई दूसरा चिकित्सा कर्म को जानने वाला मेरा वैद्य नहीं है ! अपने अधर रूपी अमृत की धारा मुझे शीघ्र दो ।। २९ ।। जिमसे हे प्राणवल्लभ ! मेरी कामाग्नि को शान्ति हो । कामदेव के बाण से हुए घाव पर तुम पट्टी बाँधने के समान आलिंगन करो ।। ३० ।। यह चूर्ण तुम्हारा हो है, जो कि मुख का चुम्बन दो। हे सुन्दरों में उत्तम स्वामी ! मेरे जाते हुए प्राणों की रक्षा करो || ३१ ।। हे नाथ ! काम बाप की प्रकृष्ट पीड़ा से जो मैंने कहा, हे प्रभो तुम सब प्रकार उस मेरी आशा को पूर्ण करो ।। ३२॥ इत्यादि पाप का कारण उसका वाक्य सुनकर सेठ सुदर्शन अपने चित्त में अत्यन्त भयभीत हुए ॥ ३३ ॥ पवित्रात्मा वे उसके द्वारा दृढ़ता से पकड़ लिए जाने पर सोचने लगे कि मनोरमा को छोड़कर परस्त्री मेरी बहिन है ।। ३४ || सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र रूप धर्म रत्न की चोरिणी इससे मेरे द्वारा कैसे शीलरूपी सागर छिन रहा है ।। ३५ ।। चतुरों में उत्तम अधोमुख होकर वह मन में सोचकर शीघ्र ही उस कामग्नि से जली हुई के प्रति बोला—हे भद्रे! तुम नहीं जानती हो । तुम्हारे वचन निष्फल गए । हे विशाल नयनों वालो ! मैं क्या करूं? मुझमें नपुसकत्व है ।। ३६-३७ ।। कों के उदय से मेरा शरीर बाहर सुन्दर है। इन्द्र और वरुण के समान मुझे शरीर सम्बन्धी फल प्राप्त है ।। ३८ ।। समस्त ब्राह्मण समूह रूपी कमलों के लिए सूर्य स्वरूप मित्र से हमने कभी भी यह बात नहीं कहो ॥ ३९ ।। इस प्रकार मन में घबड़ाहट उत्पन्न करने वाले उसके वचन सुनकर नष्ट आशा वाली वह अपने मुख को काला कर दुःखित हुई ।। ४० ॥ अत्यधिक मानभङ्ग प्राप्त कर कुलनाशिनी वह कपिला अपने हाथ से उन्हें शीघ्र छोड़कर अधोमुखी स्थित रही ।। ४१ ।। । पाप से उगाए गए जो अस्थान में ही भोग की आशा करते हैं, वे लोक में सदा दुःखी होकर मानभङ्ग को प्राप्त करसे हैं ।। ४२ ॥
SR No.090479
Book TitleSudarshan Charitram
Original Sutra AuthorVidyanandi
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages240
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy