SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 113
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ षष्ठोऽधिकारः ऐसा कहकर मित्र से प्रेम करने वाला उसके साथ चला । हाय ! मैंने जान बूझकर कुछ दिन उत्तम मित्र को प्रमाद से नहीं देखा, इस प्रकार मन में विचार करते हुए जब तक उसके घर आता है। तब तक वह दुष्टा कपिला कामासक्त होकर माला, चन्दनादि से अपना श्रृंगार कर भूमि पर कोमल बिछौने से युक्त पलंग पर कछवी के समान सुन्दर वस्त्र से मुख को आच्छादित कर स्थित हुई । जो लम्पट स्त्री होती है, वह निश्चित रूप से दुराचार के प्रकार में चतुर होती है ।। १५-१६-१७-१८ ।। जिस प्रकार यशोधर की स्त्री देवरत में रक्त थी अथवा जैसे बोरवती तथा दुष्टा गोपवती अन्य पुरुष में रक्त थीं ॥ १९ ॥ जो लोक में धर्म रहित और कुबुद्धि रूपी विष से दूषित होती हैं, ऐसो कामपीड़ित दुष्टा स्त्रियाँ क्या-क्या नहीं करती हैं ॥ २० ॥ तब विमान सेठ साया और कहा--! मेरः मित्र कहाँ है ? उसने शीघ्र कहा कि तुम्हारा मित्र ऊपर है ॥ २१ ।। ___हितकारी चित्त से हे सेठ ! तुम अकेले ही जाओ । इस बात को सुनकर वह भी मित्र को देखने के लिए उत्सुक हो गया ।। २२ ।। वह बुद्धिमान् सेठ साथ में आए हुए समस्त लोगों को छोड़कर पवित्र बुद्धि से वहां जाकर पलंग पर बैठकर बोला ।। २३ ॥ तुम्हारे शरीर में क्या अनिष्ट हुआ, हे मित्रश्रेष्ठ, कहिए । कितने दिन बीत गए। हम लोगों को क्यों नहीं बुलाया ? ॥ २४ ।। तुम्हारी क्या दवा की जाय, मुझे सुखदायक वचन दो। अथवा कौन वैद्य आता है । हे मित्र ! हस्तकमल को दिखलाओ ।। २५ ॥ इस प्रकार वह बुद्धिमान् जब तक मित्र के स्नेह से बोला, तब तक उसने भी उसका हाथ पकड़कर वक्षःस्थल पर रख लिया ।। २६ ॥ तब उसे देखकर वह भी हृदय में कम्पित हुआ । बुद्धिमान् जब वह शीघ्र ही उठ रहा था तो उसे पुनः पकड़कर उसने कहा ।। २७ ।। हे कामदेव को जीतने वाले ! तुम यहाँ मेरे वचन सुनो। सुभोग रूपी अमृत के पान से कामरोग दूर करो ॥२८॥
SR No.090479
Book TitleSudarshan Charitram
Original Sutra AuthorVidyanandi
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages240
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy