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________________ पञ्चमोऽधिकारः ८५ यमराज पापी, दुष्ट, क्रूर और प्राणियों के प्राण का नाश करने वाला है । समीप में स्थित होने पर भी मुझ भोले भाले ने यथार्थ रूप नहीं जाना || ६९ ॥ यह किसी गर्भस्थ बालक, युवक, धनी, निर्धन, गृहस्थ तथा वनस्थ तापसों को भी पकड़ लेता है ॥ ७० ॥ दावानल के समान यह दण्डी संसार में जो बली हैं, उन समस्त दुरात्माओं को चित्त में तृण के समान मानता हुआ नष्ट कर देता है ।। ७१ ।। परिवार से परिष्कृत जो रूप और लक्ष्मी के मद से युक्त हैं, उन्हें भी यह पापी सर्वथा नष्ट कर देता है ॥ ७२ ॥ अतः जब तक यह शरीर चतुर इन्द्रियों से युक्त है, जब तक आयु का अन्त नहीं आता है, तब तक अपना हित करूँगा ॥ ७३ ॥ यह सोचकर वैराग्य में तत्पर पवित्र आत्मा वाले सेठ ने उन समाधिगुप्त नामक मुनि को हाथ जोड़ नमस्कार कर कहा - हे स्वामी, मुनि भव्य कमलों के लिए सूर्य तुम सदा श्रीजिनेन्द्र कथित स्याद्वाद रूपी समुद्र के लिए चन्द्रमा हो || ७४-७५ ।। आपकी शरत्कालीन चन्द्रमा का तिरस्कार करने वाली कीर्ति तीनों लोकों में व्याप्त है। आप सार और असार के विचार को जानते हैं, पाँच प्रकार के आचार की धुरी को धारण करने वाले है || ७६ ॥ छह प्रकार के अच्छे कर्मों से आपने बन्धन शिथिल कर दिए हैं । परोपकार के समूह से आपने भूतल को पवित्र किया है || ७७ ॥ कृपा कर पाप को नष्ट करने वाली जैनी दीक्षा दीजिए। वह स्वामी भट्टारक भी उनके निश्चय को स्थिर मानकर, हे भव्य जैसा तुम्हें अभीष्ट हो, तुम अपने हित को करो। इस प्रकार युक्ति को जानने वाले ज्ञानी ने शुभ वाणी कही || ७८-७९ ।। सेठ वृषभदास गुरु की आज्ञा सिद्ध जिनों को तथा गुरु के दो चरण - कमलों को नमस्कार कर, विनय वचनों से सुदर्शन को राजा को सौंपकर कहा --- राजन् ! आप इसका सदा पालन करें ।। ८०-८१ ॥ श्रीमानों के सार रूप पुण्य से मैं अपना हित करता है, इस प्रकार आग्रह करने पर उसने भी अनुमति दी और प्रशंसा की ।। ८२ ।।
SR No.090479
Book TitleSudarshan Charitram
Original Sutra AuthorVidyanandi
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages240
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size4 MB
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