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जीव अकेला जन्म ले, मृत्यु अकेस पाय । भय निधि मां भ्रमलो रहे. मोनू अकेला जाय ॥ हिन्दी अनुवाद सहित 200
उनके होठ फरकने लगे। श्रीपालजी - ( मन ही मन में) माँ ! मुझे तुम्हारी वृद्धावस्था का विचार आता है। नहीं तो...... देता ।
विषैले इन वचन बाणों ने दिल मेरा खसोटा है।
अब बता दूंगा ! यह सोना खरा है ? या कि खोटा है ||१||
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मानव में आवेश का आना स्वाभाविक है, किन्तु समझदार व्यक्ति अपना संतुलन बनाए रखते हैं, वे उसमें बहते नहीं हैं ।
उसी समय महाराज श्रीपाल के विचार कहले
मैंने पह कश किया ? यह बूढ़ी मां का मर्मवचन नहीं किन्तु एक सही प्रेरणा है। मार्गदर्शक पर क्रोध कैसा ? इसमें अप्रसन्न होने की बात ही क्या है ? जिस प्रकार अन्य नागरिक मेरा स्वागत कर अभिनंदन करते हैं, उसी प्रकार यह मी एक उपहार हैं।
रे मानव ! तू किसी को भार स्वरूप न वन । स्वावलम्बी बन । अपनी दुर्बलता को तिलांजली दे मैदान में आ पुरुषार्थ कर । कूपमण्डूक न बन । उन्नति और अवनति की बागडोर स्वयं तेरे हाथ में हैं। जीवन का कोई सुन्दर सिद्धान्त बना उस पर दृढ़संकल्प हो आगे बढ़ता चल ।
महाराजा श्रीपाल उसी समय महल की ओर वापस लौट गए। उन्होंने सोचा कि मनुष्य चार प्रकार के होते हैं । उत्तम, मध्यम, अभ्रम और अधमाधम ।
( १ ) जो लोग अपने गुणों से प्रसिद्धि प्राप्त कर यशस्वी बनते हैं, वे उत्तम हैं । ( २ ) जो लोग अपने पिता के नाम से प्रसिद्धि प्राप्त करते हैं वे मध्यम हैं । (३) जो लोग मामा के नाम से ख्याति प्राप्त करते हैं, वे अधम हैं । (४) जो अपने श्वसुर के नाम से ख्याति प्राप्त करते हैं, वे अधमाधम हैं । अतः मुझे इस चौथी श्रेणी में रहना पसंद नहीं |
ढाल पहली
( राम जेतश्री )
क्रीड़ा करी घर आवियो, चपल चित्त श्रीपालो रे । उच्चक मन देखी करी, बोलावे प्रजापालो रे ||१|| क्री०
राज कोणे आज सव्या, कोणे लोपी तुम आण रे । दीसो छो कांई दूमण, तुम चरणे अम प्राण रे || २ || क्री०