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अभी वरू इस काज को, कल हगा यह काज | स्वान तुल्य इम लोक में, को जान यह साज ॥ हिली अनुवाद सहित SHAREKA RE* * ..
मैं तुझ दुःख देवा भणी, जय० कीधो एह उपाय, गुण। दुःख टली ने सुख थयुं जय० ते तुज पुण्य पसाय, गुण || ४||
प्रजापाल सुस्त हो आगे बढ़ रहे थे, उसी समय पुण्यपाल वहां आ पहुंचे। वे अपने बहनोई के विचारों को भांप गये। पुण्यपाल - आप जो सोच रहे हैं वह उचित नहीं । श्री सद्गुरु की कृपा से मयणा के भाग्य जागे । अपने जमाईजी को श्री सिद्धचक्र की सेवा फली । कृपया आप महल में पधारें। प्रजापाल सालेजी का आग्रह टाल न सके।
श्रीपाल ने खड़े हो, ससुर का स्वागत कर अभिवादन किया। मयणासुन्दरी पूज्य पिताश्री के चरण स्पर्श कर बाजू में खड़ी हो गई । श्रीपाल की आकृति-मुंह हाथ नाक, देख अब प्रजापाल की आत्मा में पूर्ण विश्वास हो गया कि वास्तव में मेरा संशय गलत था। उन्हें अपनी भूल पर आत्मग्लानि, महान् पश्चात्ताप हुआ, वे मयणा का सरल हृदय, भोली सूरत देख रो पड़े, लज्जा से उनका सिर झुक गया । अब उनके जीवन में ठीक तरह से जैन सिद्धान्त का बीजारोपण हुआ और विशुद्ध श्रद्धा का अंकुर फूट निकला। मयणा कहे सुण तातजी, जय० इहां नहीं तुम अंक गुण | जीव सपल वश कर्म ने, जय. कुण राजा कुण रंक । गुण ॥१५॥ मान तजी मयणा तणी, जय० गये मनावी माय | गुण ० । सजन सविथया एक मना, जय० उल्लट अंग न माय । गुण० ॥१६॥
मयणासुन्दरी - आप मानते हैं कि मैंने मयणा को महान दुःख देने की चेटा की। पिताजी ! सुख-दुःख बाजार की वस्तु नहीं, जिसे कि मानव अपनी इच्छानुमार आदान-प्रदान कर सके । “सचे जीवा कम्म वस" राजा हो या रंक, देव, दानव, तीर्थकर गणभर प्रत्येक व्यक्ति को अपने पूर्वसंचित शुभ अशुभ-कर्म जीवन में भोगना ही पड़ते हैं । वे मानव धन्य हैं, जो कि कर्म-बन्धनके कारणों से सदा सावधान रहते हैं। आप रंज न करें। मुझे दुःख नहीं हुआ किन्तु श्री सिद्धचक्र पाराधन करने का एक मुन्दर अवसर प्राप्त हुआ ।
प्रजापाल मयणासुन्दरी के वचनों से बहुत प्रभावित हुए। उन्हें अपने जीवन में प्रकाश और शान्ति का अनुभव होने लगा। चारों ओर प्रसन्नता की लहर दौड़ गई। वे महारानी रूपसुन्दरी की धृष्टता को भूल उसे अपने माथ ली और चलने ममय महागज श्रीपाल को भी अपने राजप्रासाद में पधारने की विशेष प्रार्थना की