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________________ आंख के अंधे न हो, मोची विचारो पात को। मोह को आने न दो, अब नो अंधेरी रात को । . ६HARA TRAKAREN श्रीपाल रास धिक धिक क्रोध तणे वशे, जय० मैं अविचायु कीध गुणः । मयणा सरखो सुन्दगै जय० कोढ़ी ने कर दोध गुण ॥८॥ ए पण हुई कुल खंपणी, जय० मुज कुल भरियो छार गुण । परण्यो प्रीतम परिहरि, जय० अवर कियो भरतार गुण ॥२॥ दोनों पति पत्नी पुण्यपाल के भवन में बैठ तत्वचर्चा धर्मध्यान कर आनन्द से रहने थे। महाराज श्रीपालकी उदारता, गुणागुराग देख कई अच्छे अच्छे कलाकार दूर दूर में आकर उनका मनोरंजन करते । एक दिन एक नाट्यशास्त्र के विज्ञ अपनी कला का प्रदर्शन कर रहे थे । संगीताचार्य ने मृदंग, वीणा आदि वाद्यों की ताललय से उनके नृत्य को विशेष आकर्षित बना दिया था । उसी समय उद्यान से वापस लौटते समय उज्जैन नरेश प्रजापाल भी उधर आ निकले । मार्ग में संगीत की मधुर ध्वनि सुन वे वहीं स्तंभित हो गये, आगे न बढ़ सके । नर्तकों का हावभाव, कलाचातुर्य देख वे मुग्ध हो गए । अभिनय संपन्न होते ही मयणासुन्दरी को देख उनके मुंहकी आकृति बदल गई । प्रजापालअरे! नादान तेने यह क्या किया? महान् अनर्थ कर डाला, आपेश में आ प्रजापाल आपे से बाहर हो गये, किन्तु अब हो ही क्या सकता था ? अंत में उन्हें अपनी अवस्था और दुराग्रह का स्मरण हो आया | हाय ! कड़वा फल छ क्रोधना, क्रोध का परिणाम कभी ठीक नहीं होता है। मयणा के साथ एक सुन्दर नवयुवक को देख उनके हृदय को बड़ा आघात पहुंचा। इणी परे उभो झूम्तो जयवंताजी जब दीठो ते गय. गुणवंताजी। पुण्यपाल अवसर लहो जयवंताजो, आवो प्रणमें पाय, गुण ॥१०॥ गज पधागे मुज घरे, जयवंताज, जुओ जपाई रूप. गुणवंताजी । सिद्धचक्र सेवा फली, जयवंताजी, ते कयुं सकल स्वरूप, गुग ॥११॥ गये आवी ओलख्पो, जयवंताजी, मुख इंगित आका, गुणवंताजी। मन चिंते महिमा नीलो, जयवंताजी, जैनधर्म जगसार. गुण ॥१२॥ मयणा ते सांची कही. जयवंताजी, सभा मांह मवि वात. गुणवंताजी । मैं अज्ञान पणे कयु, जयवंताजी, ते सघलो मिथ्यात, गुण ।१३।।
SR No.090471
Book TitleShripalras aur Hindi Vivechan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNyayavijay
PublisherRajendra Jain Bhuvan Palitana
Publication Year
Total Pages397
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size12 MB
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