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है नहीं बोना बहुत दिन इस तरह संसारमें भूलकर क्यों दिल डुबोता है, कुपथ की धार में। ७८3HARA%
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A57 श्रीपाल रास नयर सवि सणगारियुं, जय० चहुँटा चोक विशाल गुण । घर घर गुड़ी उछले, जय० तोरण झाक झमाल । गुण० ॥१७॥ घरे जमाइ महोत्सवे, जय० तेड़ी आव्यो राय गुण । संपूरण सुख भोगवे, जय० सिद्धचक सुपसाय । गुण ॥१८॥ नयर मांहि प्रगट थई, जय० मुख मुख एहिज बात गुण । जिन शासन उन्नति थई, जय० मयणा ए राखी ख्यात गुण ॥१९॥ रास रूडो श्रीपालनो, जय० तेहनी अगियारमी दाल गुण । विनय कहे सिद्धचकनी, जय० सेवा फले तत्काल, गुण ॥२०॥
चापाई खण्ड खण्ड मीठो जिम खण्ड, श्री श्रीपाल चरित्र अखण्ड । कीर्ति विजय वाचक थी लह्यो, प्रथम स्वंड इम विनये कह्यो ।
उज्जैन के सम्राट् प्रजापाल का आदेश पा सेवकों ने महाराज श्रीपाल के भन्य स्वागत का प्रबंध किया । ध्वजा पताकाओं से सारा नगर सजाया गया । स्थान स्थान पर सुन्दर द्वार बना कर उन पर तोरण लटकाए ।
जमाईराज के नगर प्रवेश करते समय श्री सिद्धचक्र यंत्र की जय हो ! जय हो !! जयघोष से सारा आकाश गुंज उठा | सर्वत्र एक यही चर्चा थी कि " सत्यमेव जयते" सदा सत्य की ही विजय होती है। ये दम्पती चिरायु हो। धन्य है सौभाग्यशालिनी मयणा ! तेने अपने सतीत्ववल से राणा के सोए भाग्य को चमका सुयश प्राप्त किया। दोनों पतिपत्नी आनंद से प्रजापाल के यहाँ रहने लगे।
श्रीपाल रास के लेखक श्रीमान उपाध्याय विनयविजयजी महाराज कहते हैं कि जिस प्रकार सांटे-ईख के प्रत्येक खण्ड में अधिक से अधिक मधुरता रहती है। उसी प्रकार श्रीपाल-रास के प्रथम खण्ड की यह ग्यारह ढाल सम्पूर्ण हुई। प्रत्येक ढाल एक से एक बढ़कर शिक्षाप्रद मननीय और रसीली है। मैंने यह कथा अपने गुरु परम कृपालु उपाध्याय कीर्तिविजयजी के मुख से श्रवण कर पाठकों के सामने प्रस्तुत की है। इस कथा के पाठक और श्रोताजन श्रीपाल-मयणासुन्दरी के समान श्री सिद्धचक्र आराधन कर सफलता प्राप्त करें | यही शुभ कामना ।
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