SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 83
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ को बड़ी शक्तियों से ज्ञान को सत् शक्ति है। जो परम पद को दिलाती है वह भगत भक्ति है। ७४ 0 56- 565 श्रीपाल रास म्हारा सुहाग अमर रहे, तुम चिरायु हो। तुम-सी विनीत स्वभावी पतिव्रता नारियों से ही आज महिला जगत का सिर ऊंचा है। धन्य है मयगा, तेने अपनी श्रद्धा, अनुपम धैर्य और शान्त भाव से एक महान् विपदा का सामना कर, ससुराल और पीयर दोनों कुलों को उज्वल कर धवल यश श्री प्राप्त की । बारः पुण्ये पागियो, नाति निरल वंश । पुत्र सिंहस्थ राय नो, क्षत्रिय कुल अवतंस ||३|| रूपसुन्दरी रंगे जई, वात सुणाची सोय । निज बंधव पुण्यपाल ने, ते पण हर्षित होय ॥४॥ चतुरंगी सेना सजो, साथे सबल परिवार । तेजी तुरिय नचावता, अवल वेष असधार ||५|| स्तन जड़ित झलके धणा, धर्या सूरियां पान । ढोल नगाग गड़गड़े, नेजा रे निशान ||६|| भाणेजी वर जिहां बसे, त्यां आव्या तत्काल । निज मंदिर पधरावता, पुण्यवंत पुण्यपाल ||७|| रूपसुन्दरी अपनी वेाण कमलप्रभा से विदा ले घर आई और पुण्यपाल से कहा, बन्धु ! आज अपने भाग्य जागे । अब तक हम मयणा के पतिदेव को एक कुष्टी साधारण पथिक मान संतप्त थे। किन्तु हमारा महान सौभाग्य है कि वास्तव में उनका क्षत्रिय वंश राजघराने में हुआ है, और वे चंपानगरी के सम्राट् सिंहस्थ के पुत्र श्रीपाल हैं । यह सुन पुण्यपाल बड़े प्रसन्न हुए। वे उसी समय हाथी, घोड़े, रथ, पालकी, पाय-दल, रत्नजड़ित तलवारें, डंके निशान, ढोल, नगारे आदि मंगल कलश ले अपने भानजा जमाई का स्वागत करने चल दिये। ढाल ग्यारवीं .. देशी - (गय कहे गणो प्रत्ये सुण कामिनी रे) आवो जमाई पाहुणा, जयवंताजी, अम घर करो पवित्र गुणवंताजी। सह ने अचरिज उपजे, जयवंताजी, सुणता तुम चरित्र गुणवंताजी ॥१॥
SR No.090471
Book TitleShripalras aur Hindi Vivechan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNyayavijay
PublisherRajendra Jain Bhuvan Palitana
Publication Year
Total Pages397
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy