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नरपति के चित्त में, सुखश न्ति आ सकता नहीं। व्यर्थ जीवन है यदि, मन में प्रभुक्ति नहीं। हिन्दी अनुवाद सहित * * * * * * *****ॐ ७३
कमलप्रभा - वेवाणजी ! मानव दुःख, दर्द, अलाय, बलाय से बचने के अनेक प्रयत्न करता है। वह अंतिम सांस तक भी यह नहीं चाहता कि मेरे जीवन की इतिश्री हो जाय । कीन्तु फिर भी पूर्वसंचित अशुभ कर्म के प्रतीक ज्वर, खाँसी, पक्षाघात-लकुवा, तपेदिक आदि रोग आधि-व्याधि-उपाधि देह की परछाई की भांति मानव का पीछा नहीं छोड़ते हैं।
यही हाल मेरा हुआ । दुःखिनीके भाग्यमें सुख कहाँ ? में उधर अपने देवर अजितसेन के चंगुल से बची तो इधर श्रीपाल कुष्ट रोग का शिकार बन गया । मेरे राजा बेटे का दिन पर दिन स्वास्थ्य गिरता देख में चिन्ता से घुलने लगी। बैठते उठते, खाते पीते मुझे कहीं चैन नहीं । मैं कर ही क्या सकती थी ? अन्त में विवश हो एक दिन बच्चे को वृद्ध कुष्टी के भरोसे अकेला छोड़ मैं किसी निपुण वैद्य की खोज में चल पड़ी।
कमलप्रभा - वेवाणजी ! मार्ग में मैंने अनेक वैद्यों के द्वार खटखटाए । कई वृद्ध स्त्री-पुरुषों से सलाह ली । मुझे कहीं भी संतोष प्राप्त न हुआ। मैं जहाँ जाती वहाँ हँसी का पात्र बनती। फिर भी मेरे लाल श्रीपाल की ममता मुझे अपने ध्येय से पीछे हटने नहीं देती, और वास्तव में लोगों का कहना सही था कि वर बिना बरात, और रोगी को देखे बिना दवा केसी १ .
अन्त में आप के और हमारे समागम का सारा श्रेय परम कृपालु सद्गुरुदेव को ही है। उन्हीं की शुभासीस से मैं आज आपके सामने उपस्थित ह ।
श्रीमान् विनयविजयजी महाराज कहते हैं कि नाना प्रकार के संकट दुख दर्द . कर्म बंधन मुक्त होने का अनुभूत सिद्ध मंत्र है सत्संग, सद्विचार और सत्कार्य श्रीपाल-रास की यह दसवीं ढाल सम्पूर्ण हुई ।
दोहा रूप सुन्दरी श्रवणे सुणी, विमल जमाई वंश । हरखे हियड़े गही गही, इणी परे करे प्रशम ।।१।।
वखत वंत मयणा समी, नारी न को संसार ।
जेणे बेउ कुल उद्धर्या, मती शिरोमणि मार ॥२॥ महारानी रूपसुन्दरी अपने जमाई श्रीपाल का वंश परिचय और बाल्य जीवन की अद्भुत घटनाएं सुन चकित हो गई। उसने अपनी प्यारी बेटीको गले लगा, आशीर्वाद दिया। बेटी! तुम युग युग श्री जैनधर्म-सिद्धचक्र यंत्र की आराधना कर अपना जीवन सफल करो ।