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भक्ति का है भाव जिसमें, तुच्छ उसको जगत है। भय नहीं निर्भय है, को जो कि प्रभु का मक है। हिन्दी अनुवाद सहित RRRRRRRRERA
७१ चाहिए समय पर दूध बताशे । श्रीपाल की प्यारी बोली भोली सूरत देख मेरा हृदय भर आया, मेरी आंखों से आँसू रुक न सके। यह भी कैसे हो सकता था कि में कानों से बहरी बनने का दंभ करती । श्रीपाल मां ! मां ! ! दूध । वेटा ! दूध तो दूर रहा, यदि अपने को रूखा सूखा अन्न भी हाथ लग जाय तो घी-घेवर पाए । अभी तेरी अभागिनी मां को न मालूम कितनी कमाँ की यातना भोगना शेष है ।
मैंने अवश्य किसी जन्म में गरीबों के गले नख दे, उन के भोगोपभोग में विघ्न कर उन्हें दुःखी किया होगा, निरपराध जीवों की हिंसा कर अपना स्वार्थ साधा होगा, किसी के बालबच्चे-स्त्री-पुरुषों में मन मुटाव पैदा कर उन्हें कलंकित करने की पेष्टा की होगी, अपा श्री देव गुरु धर्म की आशातना कर कर्म बंधन किया होगा—उसी का यह प्रत्यक्ष कटु फल है।
वेवाणजी ! जो मन में आया बड़बड़ा कर हृदय हलका किया, बच्चे को फुसला कर मैं वहां से आगे चल पड़ी।
इवे जाता मार्गे मली रे, एक कुष्टी नी कोज । रोगी मलिया सात से रे, हीडे करता मोज देखो० ॥१६॥ ___ कुष्टी पूछया पछी रे, सयल सुणावी बात ।
वलतुं कुष्टी इम कहे रे, आरति म माय । देखो० ॥१७|| आवी अम शरणे हचे रे, मन राखो आराम । ए कोई अम जीवतां रे. कोई न ले तुम नाम | देखो० ॥१८॥
वेसर आधी बेसा रे, दांकी मघलं अंग ।
बालक राखी सोडमा रे, बेठी थई खडंग । देखो ||१९|| कमलप्रभा -- वेवाणजी ! धूप अधिक चढ़ चुकी थी। जंगल में किसानों की वैलगाड़ियाँ बीड़ में चरते ढोर आदि की जरा भी आहट सुन मैं भय से कांप उठती, मेरा हृदय धड़कने लगता । बच्चे को छाती से चिपका पीछे फिर कर देखती और चल देती। कुछ दूरी पर बहुत से मनुष्यों को जाते देख मेरे जी में जी आया। वे प्रायः सभी रुग्ण थे। एक दो नहीं किन्तु सैंकड़ों की संख्या में विचारे बड़े दुःखी मालूम होते थे, कई असह्य वेदना स कराह रहे थे। उन में से एक वृद्ध बड़ा भला और चतुर था। उसने शीघ्र ही मेरे हृदय की बात ताड़ ली। वह वहां से चलकर