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________________ देख दशा समार की क्यों न चेनन भाय । आखर चलना हो गया, वया पंडित दया गय ॥ ... RE ARRER श्रीपाल रास बड़ी गंभीर है । “ रहेगा नर तो बसाएगा घर" इतना बोलते बोलने मतिसागर मंत्री का हृदय भर आया । उन की आँखों से आँसू टपकने लगे। फिर वे आगे कुछ न बोल सके । मैं उसी समय अपने प्यारे लाल को गोद में ले राजमहल से उल्टे पैर चुपचाप भाग निकली। अँधियारी रात, अनजान मार्ग देख मेरे प्राण सूक गये । मेरे पैर सपाटे से आगे बढ़ते चले जा रहे थे। चलते चलते मैं एक निर्जर वन में जा पहुँची । चारों ओर सिर तक लंबा घास, पहाड़ी घाटियाँ, जंगली सियार, सूअरों की भगदौड़, बंदरों की किलकारियाँ, रह रह कर गो घुग्धू सांप, अजगरों के शब्द, झाड़ियों में जंगली चुहों की चूं चूं खड़बड़ाहट, गुफाओंमें गुर्राते शेर, चीतों की डरावनी प्रतिध्वनि मेरे हृदय को विदीर्ण कर रही थी। ठण्डी रात में बहती नदियां पानी के झरनों की आवाज़ दिल में कसक पैदा करती थी । चोर लुटेरों का मय मुझे आगे बढ़ने से मना कर रहा था, कटीली झाड़ियों ने मेरे वस्त्रों के चिंदे चिंदे कर डाले । कंकर-पथरों की ठोकरों से मेरे पैर लोहुलुहान हो गये फिर भी मैं अपने प्यारे सलोने मुन्ने श्रीपाल के रक्षार्थ मोहवश भगवान भरोसे आगे बढ़ती ही गई। किन्तु बच्चे की दीर्घायु तथा किसी पुण्योदय, बड़े बूदों के आशीर्वाद मागे में कोई हमारा बाल बांका न कर सका । रड़बड़ता रजनी गई रे, चरी पंथ शिर शुद्ध । तब बालक भूख्यो हुओ रे, मांगे साकर दूध देखो० ॥१४॥ तब रोती राणी कहे रे, दूध रह्या वत्स दूर । जो लहिये हवे कूकशा रे, तो लह्या कर कपूर देखो० ॥१५॥ कमलप्रभा - वेवाणजी ! सूर्योदय हुआ । आगे जाकर साफ रास्ता मिला । मैं बहुत थक चुकी थी। एक वृक्ष के नीचे बैठ वस्त्र ठीक कर, कुछ विश्राम लिया। दिन चढ़ने पर बचा भूखा हुआ। समय पर कलेवा न मिलने से वह मचल पड़ा। उसे क्या पता कि मेरी माता पर क्या बीत रही है। इस समय हम कहां हैं। बों को तो श्रीपाल रास लेखक का अभिप्राय: . रत्ननहित झूले, स्वर्ण पलंग, कोमल शया, भव्य राजप्रासाद में रंगरेलियां करने वाली राजमाता के भाग्य में आज दो घड़ी विश्राम लेने को हाथभर जगह भी नहीं । वाह रे वाह ! कटिक कर्म तुझे क्या कहें! केमा संघर्ष ? फिर भी वोरांगना कमलप्रभा निडर थीं, उसके मुंह पर ग्लानि नहीं, सत्य-सतीत्व के बल का तेज था, प्रसन्नता थी। सुख, दुख के साथ घनिष्ठ रूप में मिला हुआ है, जैसे दूध और पानो । एक के विना । दूसरे का अस्तित्व नहीं है । दुःख हो सुख की अनुभूति और प्रमति का मूल है।
SR No.090471
Book TitleShripalras aur Hindi Vivechan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNyayavijay
PublisherRajendra Jain Bhuvan Palitana
Publication Year
Total Pages397
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size12 MB
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