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________________ एक यस तन ढकन को, नया पुराना कोय | एक काम रहन से बाहर (हु सोर ६८ * * ** * श्रीपाल राम गेना उसके लिये, जो कर्ज रोग से मड़ता है। गेना उसके लिये, जो मत् छोड़ असत की ओर बढ़ता है ।। सिंहस्थ धर्मध्यान जनसेवा में तन मन धन को लुटा गये । सम्राट मरे कहाँ ? वे अमर हैं, अपने कर्तव्य को निभा गये ॥ हृदय नहीं मानता मंत्रीश्वर ! अब यह मुन्ना आपका है। इसे गजनिलक कर शासन की व्यवस्था करियेगा। ढाल दसवीं ( राग माफ) मृत कारज करी राय ना रे. सकल निवागे शोक ; मतिसागर मंत्रीसरे रे, थिर कौधा सवि लोक । देखो गति दैव नी रे, दैव करे ते होय; कुणे नहीं चाले रे ॥१॥ राज ठवीं श्रीपाल ने रे, वस्तावी तस आंण । राज काज सवि चालवे रे, मंत्री बहु बुद्धि खाण, देखो ॥२॥ इण अवसर श्रीपाल नो रे, पीतरीओ मतिमूढ । परिकर सघलो पालठी रे, गुझ करे इम गृह देखो० ॥३॥ मतिसागर ने मारवा रे, वलि हणवा श्रीपाल । राज लेवा चंपा तणु रे, दुष्ट थयो उजमाल देखो ||३|| प्रधानमंत्री मतिसागर ने, सम्राट सिंहस्थ का अंतिम विधि-विधान कर जनना को धीर बंधाया पश्चात् शुभ मुहूर्त में एक परिषद् बुलाकर सर्वानुमति से श्रीपाल को राज-तिलक कर सर्वत्र उनकी दुहाई फेर दी गई। मतिसागर समयज्ञता और बड़ी बुद्धिमानी से शासन व्यवस्था करते थे। भविष्य के गर्भ में क्या है ? ज्ञानी बिना इसका निराकरण कौन कर सकता है ? अखण्ड यश आज तक किसने पाया है ? यही हाल प्रधान मंत्री का हुआ । श्रीपाल के काका अजिवसेन ने अल्प समय में ही सारी बाजी उलट दी ।
SR No.090471
Book TitleShripalras aur Hindi Vivechan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNyayavijay
PublisherRajendra Jain Bhuvan Palitana
Publication Year
Total Pages397
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size12 MB
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