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जग में साथी दोय है, आतम अरु परमात्म । और कल्पना है ममी. मोह जनक ये भ्रम ।। ६२ XXXS54444REP67 श्रीपाल रास
वज्र पड़ो मुज कूरखने, धिक धिक मुज अवतार ।
रूपसुंदरी इणी परे घj, रुदन करे तेणीशर ||
मयासुन्दरी के अनमेल विवाह से उसकी मां रूपसुन्दरी को बड़ा आघान पहुँचा | वह खिन्न हो अपने भाई पुण्यपाल के यहाँ पीयर में आ गई थी । वहाँ भी चिन्ता से सदा उसका मन उदास रहता था, और खान-पान, देव-दर्शन आदि में कहीं भी उसका मन नहीं लगता था । अन्त में उसने सोचा, जैनागमा का सार यही है कि आनध्यान से तिर्यंच गति और रौद्रध्यान से नरक गति का बन्ध होता है, अतः अब रोने पीटने से क्या होगा ? मैं कई दिनों से व्यर्थ ही श्री जिनेन्द्रदेव के दर्शनों से वंचित है।
एक दिन वह मन्दिर दर्शन करने गई । सभामंडप में पहुंचते ही उसके प्राणा मूक गए । मयणा को एक नवयुवक के साथ स्वर में स्वर मिलाते देख वह स्तब्ध हो गई । उसका सिर चकरा गया । सुन्दर हष्टपुष्ट नवयुवक श्रीपाल अपनी मां और धर्मपत्नी के साथ चैत्यवन्दनादि विधि कर ताल लय में बड़े मधुर स्वर से भगवान के गुणगान में मस्त था । युवक के सुरीले शब्द महारानी रूपसुन्दरी के हृदय को विदीणं कर रहे थे । वह चीख उठी । हाय बेटी ! तेने यह क्या किया ? पगली हाड़ मांस के रूपसौन्दर्य पर लुभा कर अनर्थ कर डाला । तूने जन्म ले क्यों मेरी कोख लजाइ ? जन्मने ही मर जाती तो आज मुझे इतना संताप तो न होता, मैं समझती मेरे उदर में पत्थर ही पड़ा था । बड़े बुढ़ों की धवल यशःश्री पर धन्ना तो न लगता । अब में दुनिया के सामने अपना मुंह बताने की न रही, अब मेरा जीना बेकार है । वह रो पड़ी।
रोती दीठी दुःख भरे, मयणाए निज माय ।
तव आवी उतावली. लागी जननी पाय ॥२॥ हर्ष तणे स्थानक तुमे, का दुःख आणो माय । दुःख दोहग दूरे गया, श्री जिन धर्म पसाय ॥९||
निसिही करीने आविया, जिण हर माहे जेण ।
करतां कथा संसार नी, आशातना होये तेण ॥१०॥ हमणा रहिये छे जिहां, आवो तिण आवास । बात सयल सुणजो तिहां, होशे हिये उल्लास ॥११||