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________________ भवोदधि धारण गग है. मधु लिपटी अमि भार : इसोको वाम ही भा पार ।। ५८ -*****SHARMAH RA श्रीपाल राप्त बीजे आंबिल बाहिर त्वचा, निर्मल थई जपतां जिन रूवा । एम दिन दिन प्रति वाथ्यो वान, देह थयो सोवन्न समान ॥३॥ नवमें आंबिल थयो निरोग, पामो यंत्रनमण संयोग । सिद्धचक्रनो महिमा जुओ, सकल मन अचरिज हुओ॥॥ मयणा कहे अवधारो गय, ए सवि सद्गुरु तणो पसाय । मातपिता बन्धव सुत होय, पण गुरु सम हितुओ नहीं कोय ||५|| मयणासुन्दरी ने राणा से अनुमति प्राप्त कर आश्विन शुक्ला सप्तमी से श्री नत्रपद ओली प्रारम्भ की। दोनों पति-पत्नि बड़े मनोयोग से देववंदन, स्वस्तिक, वमासमण, कायोत्सर्ग, और आयंबिल करते । मयणासुन्दरी पूजन कर यंत्र का प्रक्षालन-जल उन रोगियों पर छिड़कती । जलके प्रभाव से पहले दिन ही रोग की जड़ निर्मल हो उन्हें बड़ी शान्ति का अनुभव हुआ। दूसरे दिन घाव मूकने लगे, क्रमशः नव आयंबिल नं __उन की कायापलट कर दी। रोगियों का रंग रूप कुछ और ही हो गया। जनना उन्हें देख चकित हो गई । राणा - मयणा ! धन्य है तुम्हें । तुम्हारे सद् प्रयत्न से ही हमें नवजीवन मिला । --प्राणनाथ ! यह वास्तव में श्री गुरुदेव की कृपा समझियेगा। ऐसे तो हमारे उपकारी माता पिता बान्धवादि माने जाते हैं। किन्तु निस्पृही परम हितेपी यदि कोई है तो एक मात्र परम तारक गुरुदेव ही हैं। कष्ट निवारे गुरु इह लोक, दुर्गति थी वारे परलोक 1 सुमति होय सद्गुरु सेवतां, गुरु दीवो ने गुरु देवता ॥६॥ धन गुरु ज्ञानी धन ए धर्म, प्रत्यक्ष दीये जेहनो मर्म । जैन धर्म परशंसे सहु, बोधि बीज पाम्या तिहाँ बहु ॥७॥ सात सौ रोगीना रोग, नाठा यंत्र नव्हण संयोग । तेओ सात से सुखिया थया, हा निज निज थानक गया ||८|| मयणासुन्दरीने कहा- अहो ! धन्य है श्री जैनधर्म और निस्पृह निग्रन्थ गुरुको, आज जिनका प्रत्यक्ष प्रभाव हमारे सामने है। गुरु दीपक और देव के समान हैं, वे सन्मार्ग का प्रकाश
SR No.090471
Book TitleShripalras aur Hindi Vivechan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNyayavijay
PublisherRajendra Jain Bhuvan Palitana
Publication Year
Total Pages397
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size12 MB
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