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जो चाहे निज वस्तु को, पर को तजो सुजान। पर पदार्थ संसर्ग से, कमी न हो कल्याण ॥ ४०
* श्रीपाल रास रोगी रलीआयत थया रे, देखी कन्या पास । परमेसर पूरण करी रे, आज अमारी आश ॥१६।। चतुर नर०
सुगुण रास श्रीपाल नो रे, तेहनी पांचमी ढाल । विनय कहे श्रोता घरे रे, होजो मंगल माल ॥१७॥ चतुर नर०
राजकुमारी को राणा से कालपर्श करते ऐड कोड़ी देगा ले । अभाग, वे प्रसन्न हो सभी एक स्वर से "राणा की जय हो। राजमाता की जय हो ! जय हो !!" अपनी मूछों पर ताव दे एक दूसरे से कहने लगे वाह रे हम ! बस क्या कहना ! गढ़ जीते, आस फली ।
राणा- राजन् ! यह क्या ? राजदुलारी मेरे साथ ? आप कुछ तो विचार करें, भविष्य में इसका क्या होगा। काग के गले मोती की माला ? जगत का इतिहास आप को क्या कहेगा ? यह तो एक नादान कन्या है, किन्तु आप तो महाराजाधिराज हैं ।
प्रजापाल--आप मुझे दोष न दें । इस बाई के कुछ भाग्य ही ऐसे हैं । यह अपने विचारों से टस से मस होना नहीं चाहतीं । आप तो इसे सहर्ष ले पधारें ।
' श्रीमान् विनय विजयजी महाराज कहते हैं कि यह श्रीपाल रास की पांची दाल सम्पूर्ण हुई । श्रोतागण और पाठकों के धर सदा आनंद मंगल होवे । यही शुभकामना ।
दोहा .: कोई कहे धिक राय नो, एवडो रोष अगाध । __ कोई कहे कन्या तणो, ए सगलो अपराध ॥१॥
उतारे आव्या सहु, सुणतां इम जन वात।
अनुचित देखी आथयो, रवि प्रगटी तव सत ॥२॥ यथा शक्ति उत्सव करी, परणावी ते नार । मयणा ने उम्बर मली, बेठां भुवन मझार ॥३॥
राजकुमारी मयणासुन्दरी के संबन्ध से नगर में चारों और सनसनी फैल गई। किसी ने कन्या को भला-बुरा कहा, तो किसी ने प्रजापाल को । अरे : माना, लड़की में छिछोरापन था, पर महाराज तो समझदार थे। बच्चों पर इतना रोए। इस अनुचित व्यवहार से सूर्य देव भी खिन्न हो अस्ताचल की ओर प्रयाण कर गए ।