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भेद ज्ञान महिमा अगम, वचन गम्य नहीं होय । दूध स्वाद उगले नहो, पीते मीठा तोय ।। ३६ ARABARICHAR श्रीपाल रास
केई टूटा केई पांगला रे, केई खोड़ा केई खीण ।
केई खसिया केई खासिया रे, केई दद्दर केई दोण ॥४॥ चतुर नर० एक मुखे मांखी भणभणे रे, एक मुख पड़तो लाल । एक तणे चांदा चगेरे, एक शिर नाग बाल ।।५।। चतुर नर०
___उम्बर राणा का दूत कुष्ट रोगी - राणा की जय हो ! जय हो !! राणा के साथियों ने __ उसे चारों ओर से घेर लिया । कुष्टरोगी दूत-अहा ! हां हां हां - हंसकर प्रसन्न हो बोला
बन गया,"बन गया ! अपना काम बन गया । आज बजारदार शकुन हुए | जाते समय मेरे दाहिनी ओर घोड़ा हिन-हिनाया, सामने बड़ी जोर से नंदी (सांड) डकाग, मैंने सोचा आज अवश्य ही अपनी मनोकामना सफल होगी। आगे बढ़कर देखा तो मालवपति राज-मार्ग को छोड़ दूसरी ओर लौट रहे थे, में दौड़ कर सीधा महाराज प्रजापाल के पास जा पहुंचा, उनसे बात-चीत की, उन्होंने मेरी प्रार्थना स्वीकार कर अपने राणा को राजपुत्री देने का वचन दिया है । राणा के सभी साथी प्रसन्न हो उछलने लगे । राणा की जय हो ! जय हो !! कोदी एक दूसरे से कहने लगे जल्दी करो । झट चलो । प्रजापाल की राजसभा में पहुँचना है । राणा जन्म से बड़े सुन्दर थे किन्तु संक्रामक चेपी कोढ़ रोगसे उनका सारा शरीर कुमला गया था, मैला दुपट्टा ले एक खबर घोड़े पर सवार हो चलते समय वे ऐसे मालूम होते थे मानों शीतकाल में ठण्ड से जले हुए बलों की पंक्ति में एक मुआया हुआ आम का पेड़ खड़ा हो । एक लम्बे कान वाले कोही ने छत्र लिया, सफेद चछे की अंगुलियां दुर्बल बाहु वाले कोढ़ी ने चंबर लिया एक । कोढ़ी ने गले में ढोलक डाली। एक बांकी कमर श्वास से पीड़ित कोदी खों....खों करते हुए हाथ में बांस की छड़ी ले आगे आगे चल रहा था। राणा के पीछे लूले, लंगडे गूंगे बहरों की फोज थी। सभी ने अपनी लड़खड़ाती जबान से घोंघाट करते हुए अपने राणा की विरुदावली, जयघोष के साथ नगर में प्रवेश किया । कोड़ियों के मुह से टपकती लारें | भिनभिनाती मक्खियां, गंजे सिर देख लोगों को बड़ी दया आती थी, उज्जैन के नागरिक कहते थे देखो ! कर्म की कैसी विचित्र गति है ! बेचारे दम, खांसी, खाज, खुजली से बड़े व्याकुल है, अरे भगवान् । बापरे....बाप | मरा...रे मरा । ओ बुढ़ी.... ए। ओ....बाई । बुरी तरह से छटपटा रहे हैं. गत जन्मों में इन लोगों ने कैसा भयंकर पाप किया होगा ? अब वे रोते हैं, पीटते हैं फिर भी शान्ति नहीं ।