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जो मानत्र जाने नहीं, अपना पर का भेद | झान न उसका कर सके, भव-वन का विच्छेद ॥ ३४ SARASHT RA
श्रीपाल रास लाड़िली बेटी ! राजकुमारी पाने के लिए बड़े भाग्य और योग्यता चाहिए। महाराज इम तो चले ! हमारी मांग तो एक साधारण सुशील कन्या के लिए थी न कि श्रीमान् की राजपुत्री : महाराज ! इंसी न करियेगा। समय को मान देना पड़ता है।
प्रजापाल-चमको मत ! तुम्हें आश्चर्य हो रहा है। मैं हंसी दिल्लगी नहीं करता। सदा यह स्मरण रहे कि क्षत्रियों के वचन कभी टल नहीं सकते हैं। "प्राण जाहि पर वचन न जाहि"।
ग्रंथकार श्री विनयविजय जी महाराराज कहते हैं कि श्रीपाल-रास की चौथी हाल संपूर्ण हुई। क्रोधी मनुष्य ऋद्धि - सिद्धि से वंचित रहते हैं, अतः श्रीनागण और पाठक भी क्रोध न करें ।
दोहा
कोप कठिन भूपति हवे, आव्यो निज आवास । सिंहासन बेठो अधिक, अति अभिमान विलास ॥॥
मयणा ने तेडी कहे, कर्म तणो पख छोड़।
मुज पसाय मन आण जिम, पूरुं वांछित कोड़ ॥२॥ मयणा कहे दूरे तजो, ए सवि मिथ्यावाद । सुख दुःख जे जग पामिये, ते सवि कम प्रसाद ॥३॥
बालक ने बतलावतां हटे चड़ावे गय ।
वाद करंता बाल शुं, लघुता पामे न्याय ॥२॥ कोई कहे ए बालिका, जुओ हटीली थाय । अवसर उचित न ओलखे, रीस चड़ावे राय ॥५॥
महाराज प्रजापाल उद्यान से वापस लौट कर सीधे राजमहल में आग और सिंहासन पर जा बैठे। वे क्रोध भरे तो थे ही, आवेश में आ द्वारपाल से कहा अरे चौबदार ! जाओ, मयणासुन्दरी को शीघ्र ही ले आओ।
मयणासुन्दरी-पिताश्री प्रणाम । कैसे याद किया?
प्रजापाल - मयणा ! अब तू सयानी हुई है । लरकपन न कर, मैं ठीक कह रहा है। देख ! तुझे जन्म भर पछताना पड़ेगा, कर्म के चक्कर में पड़ अपना जीवन नष्ट न कर । मयणा-पिताजी ! कहीं जीवन भी नष्ट हुआ है, जीवन के साधन जो आज है कल नहीं ।