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मोह भाव क्षय होय ज्या, अथवा होय प्रशांत । ते कहिये ज्ञानी दशा, पाश्री कहिये प्रति ॥ हिन्दी अनुवाद सहित
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R ROR ३७५ श्रीमान उपाध्याय यशोविजयजी महाराज कहते हैं कि यह श्रीपाल रास के चौथे खण्ड की चारहवीं ढाल संपूर्ण हुई। इसमें मैंने जैन सिद्धांत के अनुसार प्रत्येक बात को स्पष्ट करने का प्रयत्न किया है। यह "चाणी याचक जसतणी" अर्थात् भगवान महावीर का मार्गदर्शन सत्य है कि अपेक्षाकृत नवपद और आत्मा दोनों अभिन्न हैं। जेसे दूध और थी, तिल और तेल ।
दाहा वचनामृत जिन बीरना, निसुणी श्रेणिक भूप ।
आनंदित पहोता घरे, ध्यातो शुद्ध स्वरूप ॥१॥ कुमति तिभिर सवि टालतो, वर्धमान जिन भाण । भविक कमल पड़ि बोह तो, बिहरे महिपल जाण ॥ २॥ ए श्रोपाल नृपति कथा, नवपद महिमा विशाल !
भणे गुणे जे सांभले, तस धर मंगल माल ॥३॥ रंगील रंग में:-श्री श्रमण भगवान महावीर का प्रवचन सुन मगध सम्राट् की आँख खुल गई । वे आनन्दविभोर हो मान गए कि मोक्ष टेढ़ी खीर नहीं। जितना कि आज के विवेकशून्य आलसी मानन उसे मान बैठे हैं। मोक्ष पाना बड़ा सरल
और सुगम है, किन्तु चाहिए उसे पाने की अभिरूचि और अपनी विशुद्ध आत्मा को समझ उसमें गहरे रंग जाने की कला जैसे कि - एक कुशल कलाकार मिस्त्री एक सुन्दर मकान बनाने में अपना संपूर्ण जीवन और बुद्धि को समाप्त कर दे फिर भी विश्व में अजोड़ भवन पूर्ण होना असम्भव है। किन्तु अपने आत्म-स्वभाव के रंग में रंगा हुआ तत्वज्ञ मानव विशुद्ध भावना के प्रबल वेग से अधिक नहीं लगभग दो घड़ी के अन्तर्गत ही परम पद- मोक्ष प्राप्त कर सकता है। अतः आत्म स्वरूप में मस्त रहो।
न क्लेशो न धनव्ययो न गमनं देशांतरे प्रार्थना । केषांचित् न बलक्षयो, न तु भयं पीड़ा न कस्माश्चन ।। सावधं न न रोग जन्म पतन, नैवान्यसेवा न हि । चिद्रूप स्मरणे फल बहुतरं, किन्नादियंते बुधैः ।।१।।