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वया शांति समता क्षमा, सत्य त्याग वैराग्य । होय मुमुक्षु घट विषे, एह सदोय सुज्ञाग्य ॥ ३७४ AKSHARCHANA श्रीपाल राम
जाण चारित्र ते आतमा, निज स्वभाव माहि रमतो रे ! लेश्या शुद्ध अलकों, मोह बने नहीं भमतो रे ॥९।। वी. इच्छा रोधे संवरी, परिणति समता योगे रे । तप ते एहिन आतमा, वरते निज गुण भोगे रे ॥१०॥ वी. आगम नो आगम तणो, भाव ते जाणो सांचो रे । आतम भावे थिर हो जो, पर भावे मत राची रे ॥११॥ वो० अष्ट सकल समृद्धिनी, घट मांहे ऋद्धि दाखी रे । तिम नवपद ऋद्धि जाण जो, आतम गम छे साखी रे ॥१२॥ वी. योग असंख्य छे जिन कह्या, नवपद मुख्य ते जाणो रे । एह तणे आलंबने, आत्म ध्यान प्रमाणो रे ।१३॥ वी० ॥ दाल बारमी एवी, चोथे खण्डे पूरी रे। वाणी वाचक जस तणी, कोई नये न अधूरी रे । १४॥ वी.
सुन्दर राजमार्ग:-सम्यग्दर्शन के सुनहले दिव्य प्रकाश में क्या अझानांधकार टिक सकता है ? नहीं । सम्यग्दर्शन के साथ ज्ञानावरणीय कर्म की प्रकृतियों के क्षय-उपशम से मानव के हृदय से मोह-ममता, राग, द्वेष अनेक संकल्प-विकल्प मंद होने लगते हैं, अतः बह अपने विशुद्ध आत्म-स्वभाव का झाता-द्रष्टा बन आनन्दविभोर हो उठता है । फिर वह भौतिक सुख, मान बडाइ ऋद्धि-सिद्धि के मोह से मुक्त हो बड़े बेग से विशुद्ध आचारविचार समभाव जप-तप की ओर आगे बढ़ निसंदेह एक दिन परम पद अविचल विमल सुपद मोक्ष प्राप्त कर लेता है।
अनूठी सुखशांति बाह्य जगत व्यर्थ के आडंबर में नहीं। शांति है, अनासक्त मानव और ज्ञानी के हृदय में | अतः जिन्हें भवसागर से पार होने की कामना है वे मुमुक्षु मानव परम-पदप्राप्ति के विविध-अपार उपायों की भूलभूलैया में न उलझ कर आगम-शुद्धोपयोग नो आगम (क्रिया रुचि ) से अतिशीघ्र नवपद-श्रीसिद्धचक्र की आराधना में जुट जाए । अद्भुत मानसिक शांति और परमपद मोक्षप्राप्ति का यह एक अति महत्त्वपूर्ण सुन्दर राजमार्ग है। इस राजमार्ग का सच्चिदानन्द अनूठा आनन्द अनासक्त भाव और हृदय से श्रीसिद्धचक्र की आराधना करने से ही प्राप्त होता है। केवल बातों से नहीं।