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सकल जगत ते ए वत, अथवा स्वान समान । ते कहिये ज्ञानी दशा, बाकी वाचा ज्ञान ।। ३७६% N K ** **
श्रीपाल रास रे महानुभावो ! अपने आपको समझो 'Know Thyself , यह भवसागर से पार होने का एक अति सुगम राजमार्ग है। अपने विशुद्ध स्वभाव को समझने में न जरा भी कष्ट है, न बल न धन न पराई चाकरी और न किसी आरंभ-समारंभ की ही काई आवश्यकता है। इस निर्भय राजमार्ग को समझने में न किसी से लड़ाई झगड़ा और न कोई शारीरिक रोग ही होने की सम्भावना है। आत्म-स्वरूप अनेक महत्वपूर्ण मुप्त सिद्धियों का भंडार है। अत: इस से दूर न रहे । वे मानः धन्य है जो कि सदा अपने आत्म-स्वरूप में मगन रहते हैं ।
सम्राट् श्रेणिक अपने विशुद्ध आत्म-स्वरूप में मगन हो अपने राजप्रासाद की और लौट गये पश्चात् भगवान श्री अपने लोकालोक प्रकाशक दिव्य ज्ञान से जनता के अज्ञानांधकार को दूर करने राजगृही से अन्यत्र पधार गए ।
इस अति महत्त्वपूर्ण प्रभावशाली श्रीपाल राजा की (रास) कथा को जो पाठक और श्रोता श्रद्धा-भक्ति से पढ़ेंगे, सुनेंगे, उनके घर सदा ही आनंद मंगल हो यही शुभ-कामना ।
चौथा खण्ड - ढाल तेरहवीं
( राग-धनाश्री, थुणियो थुणियो रे प्रभु ) तूठो तूठो रे मुझ साहिब तूठो, ए श्रीपाल रास करता ज्ञान अमृत वुठो रे।।१ पायस मां जिम वृद्धिर्नु कारण, गोयम नो अंगूठो । ज्ञान मांहि अनुभव तिम जाणो, ते विण ज्ञान ते झूठो रे ॥ मु.॥२॥ उदक पयोमृत कल्प ज्ञान तिहां त्रीजो अनुभव मीठो । ते विण सकल तृषा किम भाजे, अनुभव प्रेम गरिठो रे ।। मु.॥३॥ प्रेम तणी परे सीखो साधो, जोई शेलड़ी साधी । जिहां गांठ तिहां रस नवि दीसे, जिहाँ रस तिहां नवि गांठो मु.॥॥ जिन ही घाया तिन ही छिपाया, ए पण एक छे चीठो । अनुभव मेरु छिपे किम महोटो, ते तो सघलो दीठो रे || मु.॥५॥ पूख लिखित लिखे सवि लेई, मिसी कागल ने कांठो। भाव अपूरव कहे ते पंडित, बहु बोले ते बांठो रे ॥ मु. ॥६॥