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ज्यां जया जे जे योग्य छे, तहा समजवु तेह । त्या त्यां ने ते आचर, आत्मार्थी जन एह रे ।। हिन्धी अनुवाद सहित SHAH ARA SHTRANER ३६९
नर भव अंतर स्वर्ग ते, चार बार लही सर्व । नव में भव शिव पामशे, गौतम कहे निर्गर्व ॥३॥ ते निसुणी श्रेणिक कहे, नवपद उलसित भाव । अहो नवपद महिमा बड़ो, ए छे भव जल नाव ॥४|| बलतु गौतम गुरु कहे, एक एक पद भत्ति । देवपाल मुख सुख लह्या, नवपद महिमा तहति ॥५|| किं बहुना मगधेश तू इक पद भक्ति प्रभाव |
हो ईश तीर्थंकर प्रथम निश्चय ए मन भाव ॥६॥ गौतम गधरः-सपार शिद ! श्रीपालगर और उनकी माता कमलप्रभा तथा मयणासुंदरी आदि रानियां अपना अपना आयुष्य पूर्ण कर वे सभी एक हो नवमे देवलोक में गए । पश्चात् वहाँ से वे मनुष्य, देव, मनुष्य, दे कार चार चार भव कर अंतिम नबमें मनुष्य भव में मोक्ष में जायेंगे।
मगध सम्राट् श्रेणिक - प्रभो! वास्तव में श्रीपाल-मयणा की यह एक आदर्श सिद्धचक्र आराधना है। इनके धन्य जीवन से हमें अपने आत्मविकास की ओर आगे बढ़ने की स्फूर्ति और विशेष प्रेरणा मिलती है। जिन्हें भवसागर से पार होना है वे अवश्य ही नवपद-नाव का आलंयन लें । मोक्ष का यही एक राजमार्ग है ।
पद्मनाभ तीथैकर:-एक दिन राजगृही से प्रयाण करते समय श्री गौतम गणधर ने कहा, राजन् ! "समयं म पमाए" अपने अनमोल समय का सत्संग, सद्विचार और सदाचरण में प्रयोग करना ही जीवन है। किन्तु आज मानव भौतिक सुख-सुविधाओं की चकाचौंध में भटक गया है । मैं कौन हूँ ? कहाँ से आया हूँ ओर मुझे कहाँ जाना है ? तथा जीवन का सही उद्देश्य क्या है ? इन सब को यह भूल बैठा है। उसकी दृष्टि में वह बाल्य अवस्था खेल-कूद और लाड़-प्यार के लिये है, युवावस्था घूमने-फिरने और अपने मन की साध पूरी करने के लिये है। यह शरीर मेरा है। यह परिवार मेरा है । यह धन-दौलत और भव्य भवन मेरे हैं | बस इन संकल्प-विकल्प में ही उसके मस्तिष्क के तंतु उलझे रहते हैं । अर्थात् सांसारिक सुविधा के साधनोंको अधिक संग्रह करना और उसका उपयोग व संरक्षण करना ही आज के मानव की एक आदत सी पड़ गई है।