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वैराग्यादि सफल जो, जो सह आतम ज्ञान । तेमच आतम ज्ञाननी, प्राप्ति तगा निदान ।। ३६८ ॐ ***
HAR EKA श्रीपाल रास नष्ट कर बेचारे साधक को दुर्गति के गर्त में ढकेले बिना नहीं रहता | क्रोधी स्त्री-पुरुषों का तप केवल कायाकष्ट, शरीर सुखाना है। इसी प्रकार किसी पर रीस करना भी बहुत बुरा है। यह विष से भी महा भयंकर विप है । साधारण विष तो मानव को एक ही बार मारता है, किन्तु रीस का हलाहल विष मानवकी भव भव में कमर टेढ़ी करनेसे नहीं चूकता। अतः व्रताराधक महानुभावो ! आप क्रोध और रीस से सदा दूर रहो !! दूर रहो !! व्रताराधना वही है जिससे क्षमा बल, आध्यात्मिक विकास और भव-म्रमण का अन्त हो।
व्रताराधन के बल से अष्टसिद्धि-नवनिधि आमोसहि खेलोसहि आदि अनेक लब्धियोंकी प्राप्ति होना तो एक साधारण सी बात है, किन्तु यदि व्रताराधक मानव क्षमा सहित बड़े वेग से आत्मचिंतन की ओर कुछ आगे चल पड़े तो उसका फल में वेड़ा पार हो जाय । श्री सिद्धचक्र आदि कत्येक तप के संपूर्ण होते ही व्रत कर अन्तिम उत्सव ( उजमणा) करना न भूलें । व्रत-आराधना पर उजमणा एक मंगल कलश के समान है । इस से अनेक दूसरे व्यक्तियों को आध्यात्मिक विकास और ताराधना करने की विशेष प्रेरणा मिलती है।
क्षमा सहित तप एक मानों कल्पवृक्ष है। इसके चक्रवर्ती की संपदा, अष्टसिद्धि, नवनिधि रंग-रंगीले सुंदर फूल हैं; शांत-रस समता पराग और जन्म-जरा के दुःख का सर्वथा अंत होना ही मोक्ष का मधुर फय है। सर्व मंगल में आदि मंगल शिव सुखदायक तप पद को हमारा सदा त्रिकाल बंदन हो । रे भानव ! तू भवपार होने का सर्वश्रेष्ठ आलंबन श्रीसिद्ध चक्र को वंदन कर ।
श्रीपाल रास के चौथे खण्ड की ग्यारवीं ढाल संपूर्ण हुई । उपाध्याय यशोविजयजी कहते हैं कि अब तो श्रीपालकुंवर और उनके परिवार के लोग श्रीसिद्धचक्र के भजन-कीर्तन
और ध्यान में इतने अधिक रंग गये हैं कि मानों वे जीवनमुक्त ही न हो । इस प्रकार रास के श्रोता और पाठकों को भी चाहिये कि वे भी श्रीपालकुंवर समान ही श्रीसिद्धचक्र के रंग में गहरे रंग जाय ।
दोहा इम नवपद थुणतो थको, ते नाने श्रीपाल । पाम्यो पूरण आउखे, नवमो कल्प विशाल ॥ १ ॥ राणी मयणा प्रमुख सवि, माता पण शुभ ध्यान । आउखे पूरे तिहाँ. सुख भोगवे विमान ॥ २ ॥