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मोह पाप का बीज है, प्रम पुण्य का योग । प्रेम परम सहयोग हैं, मोह परम दुर्भोग ।। हिन्दी अनुवाद सहित ARKESANSKRI
C२ ३६३ तृग परे जे षट् खण्ड सुख छड़ी चक्रवर्ती पण वरियो । ते चारित्र अक्षय सुख कारण, ते में मन माहे धरियो रे ॥ भ. सि. ॥३७॥ हुआ रांक पणे जेह आदरी, पूजित इंद नरिंदे । अशरण शरण चरग ते बंदु, पूर्यु ज्ञान आनंद रे ॥ भ. सि. ॥३०॥ बार मास पर्याये जेह ने, अनुतर सुख अति ऋमिये । शुक्ल शुक्ल अभिजात्य ते उपर, ते चरित्र ने नमिये रे ॥ भ. सि. १३९।। चयते आठ कर्म नो संचय, रिक्त करे जे तेह । चारित्र नाम निरुत्ते भाख्यु, ते बंदु गुण गेह रे ॥ भ. सि. ॥४०॥
चारित्रः सत्-असत् का त्याग और सत् कार्यों में प्रवृत्ति करना ही चारित्र धर्भ है । वास्तव में सम्यग्-चारित्र या सदाचारहीन जीवन, बिना सुंगध के फूल के समान है। श्रावक और साधु दोनों मुमक्ष हैं। दोनों का एक ही उद्देश्य है मुक्तिलाभ, पाप से बचना । फिर भी दोनों की साधना में महान अंतर है। एक के अणुव्रतादि बारह व्रत हैं तो दूसरे के पचमहावत ।
१ अहिंसा अणुवतः-पहला व्रत-स्थूल प्राणातिपात-हिंसा से दूर रहो । संसार में जीव दो प्रकार के हैं, बस और स्थावर । १ त्रस :-सुख-दुःख के प्रसंग पर जो जीव अपनी इच्छा से एक जगह से दूसरी जगह आते हैं, चलते-फिरते और बोलते हैं, वे बस जीव दो-तीन-चार और पांच इन्द्रियों वाले होते है । २ स्थावर-जो जीव इच्छा होने पर भी एक स्थान से दूसरे स्थान पर जा नहीं सकते वे स्थायर हैं | जेसे :-पृथ्वीकाय, अकाय (पानी) तेउ (अग्नि)काय, बाउकाय और वनस्पतिकाय ।
हिंसा के भेदः-१ आरंभी-अपने जीवन-निर्वाह, भोजन, जलपान और परिवार के लिने होने वाले आरंभ-समारंभ को आरंभी हिंसा कहते हैं । २ उद्योगी-मानव अपने व्यापार, पशु-पालन, खेती आदि धंधे करता है । उसमें उसकी मानसिक इच्छा किसी जीच की हिंसा करने की नहीं हैं, फिर भी हिंसा होना स्वाभाविक है । इसे उद्योगी हिंसा कहते हैं । ३ विरोधी-अपने देश, कुटुम्ब-परिवार, ओर प्राणों की रक्षा के लिए किसी का सामना करना विरोधी हिंसा है। ४ अपने स्वार्थ के लिये किसी निरपराध, निर्बल, मूक, असहाय प्राणी को जान-बूझ कर सताना, मारना संकल्पी हिंसा है । इन चार भेदों में गृहस्थ-श्रावक को संकल्पी हिंसा का सर्वथा त्याग कर, शेष आरंभी, उद्योगी और