SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 376
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जो अपनी सच्चा वही, यह है बुरी टेज । जो सच्चा अपना वही, क्खो यही विवेक ।। के श्रीपाल रास ३६५ पंच ज्ञान मांडे जेह सदागम, स्व पर प्रकाशक जेह | दीपक परे त्रिभुवन उपकारी, वली जेम रवि शशि मेहरे ॥ भ. सि. ॥ ३४ ॥ लोक उर अधोतिर्यक, ज्योतिष वैमानिक ने सिद्ध । लोका लोक प्रकट सवि जेह थी, ते ज्ञाने मुज शुद्धि रे ॥ भ. सि. ॥ ३५॥ मानव में अपने लोक व्यवहार और मुक्ति-लाभ के लिये सम्यग्ज्ञान और श्रद्धा का होना अनिवार्य है | सच हैं :- "पढमं नाणं तओ दया" विना ज्ञान के अहिंसा परमो धर्मः का पालन करना असंभव हैं। मानव को अपने भले बुरे कर्तव्यों का और भक्ष दाल-भात, शाकरोटी आदि सात्विक आहार अभक्ष-मांस, माखन रात्रि भोजन आदि तामसिक आहार, पेयदूध, छाछ, गन्ने का रस, आदि, अपेय - शराब, ताड़ी, कोको, कॉफी, चाय आदि मादक रसों के हेय उपादेय का विवेक भी बिना सज्ञान के प्राप्त नहीं होता । दैनिक धार्मिक और व्यावहारिक क्रियाएं और श्रद्धा का प्राण भी सद्झान ही तो है । अतः रे मानव ! तू बड़े मनोयोग से सद्ज्ञान का पठन-पाठन मनन-चिंतन कर, भूल कर भी किसी के अध्ययन, अध्यापन, स्वाध्याय - ध्यान में विघ्न न कर, संत महात्मा - ज्ञानी की निंदा से बचें, सत्साहित्य के प्रकाशन का सौभाग्य प्राप्त कर, अपने ज्ञानावरण असद् कर्मों से पीछे हट आध्यात्मिक विकास की और आगे बढ़ । विद्वान् की हर जगह पूछ और उनका आदर सत्कार होता है । I ज्ञान के पांच भेद हैं । मति, श्रुत, अवधि, मनः पर्यव और केवल ज्ञान | आत्मा ज्ञानमय है । इसमें अपार ज्ञानशक्ति हैं । किन्तु ज्ञानावरण कर्मों से आच्छादित होने के कारण ज्ञान का पूर्ण प्रकाश नहीं हो पाता । अतः मानव के पुरुषार्थ से जैसे-जैसे आवरण हटने लगते हैं वैसे ही ज्ञान का विकास होने लगता है, अंत में संपूर्ण आवरणों के नष्ट होते ही एक दिन अंतिम स्व पर प्रकाशक, स्वर्ग मर्त्य पाताल के प्रकट- अप्रकट द्रव्य और उनके गूढ़ रहस्यों का दिग्दर्शक, जगत् के अज्ञान अंधकार को दूर करने में चंद्र, सूर्य और दीपक सा परमोपकारी केवलज्ञान प्रकट हो जाता है। सम्राट् श्रीपालकुंवर कहते हैं कि हमें एक दिन ज्योतिष, 'वैमानिक और परम पद सिद्ध-शिला का सन्मार्गदर्शक केवलज्ञान प्राप्त हो, यही शुभ कामना । परम विशुद्ध केवलज्ञान को हमारा त्रिकाल कोटि-कोटि वंदन हो । देश विरति ने सर्व विरति जे, गृहि यति ने अभिराम । ते चारित्र जगत जयवंतु, कीजे तास प्रणाम रे ॥ म. सि. ॥३६॥
SR No.090471
Book TitleShripalras aur Hindi Vivechan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNyayavijay
PublisherRajendra Jain Bhuvan Palitana
Publication Year
Total Pages397
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy