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महान वह है जो दयालु है, ज्ञानी वह है जो प्रसन्न है। हिन्दी अनुवाद सहित -
R R AR ३५३ फिर तो वह चक्र अपने आप घूमता रहता है, उसी प्रकार मानव की आत्मा एक बार सांसारिक आधि, व्याधि और उपाधियों से मुक्त होते ही अपने आप सिद्ध शिला की ओर चल पड़ताहै।
रे मानव ! संसार के संपूर्ण दुःख आधि, व्याधि, उपाधियों से मुक्त आदि-अनंत अनुपम शश्वत सुख के स्वामी, आध्यात्मिक विभूति संपन्न आत्म-स्वभाव में सदा लौन, ज्योति स्वरूप श्रीसिद्ध भगवान को तू बार बार प्रणाम कर । प्रश्न-सिद्ध लोक के सुख की किसी सुख के साथ तुलना हो सकती है ? उत्तर - नहीं । स्वर्ग, मर्त्य और पाताल में ऐसा कोई भौतिक सुख या पदार्थ नहीं है जिसकी हम सिद्ध लोक के आध्यात्मिक अनुपम सुख के साथ तुलना कर सके ।
जेसे फि क किसान प्रसंगवश कलकत्ता से नगर में जा पहुंचा। वहां के लंबे-चौड़े बाजार, सड़कें और मोटर तांगे ट्रामों की तड़क-भड़क देख वह मंत्र-मुग्ध हो गया | क्योंकि उसके जीवन में नगर-दर्शन का यह सर्वप्रथम अवसर था | जब वह वापस अपने खेत की ओर लौटा तो उसके सगे-स्नेही-साथियों ने उससे सारी बातें पूछीं-कहो वहाँ क्या देखा ? कैसा आनंद आया ? किसान बेचारा मुस्करा कर रह गया, वह कुछ भी उत्तर न दे सका । इसका अर्थ यह नहीं कि उसने नगर नहीं देखा । वास्तव में बात यह है कि वह जानता अवश्य था किन्तु वह अपने मुंह से कुछ कह नहीं सका । क्योंकि उसके सामने जंगल में खेत के पास कोई ऐसा पदार्थ नहीं कि जिसके साथ वह नगर की तुलना कर उसका कुछ उत्तर दे। इसी प्रकार सिद्धलोक का अनुपम सुख गूंगे का गुढ़ है। सर्वज्ञदेव केवली भगवान सिद्धलोक के संपूर्ण सुख की अपने ज्ञान में हस्तामलक सदृश देखते हैं, जानते हैं किन्तु इस क्षणभंगुर संसार में ऐसा कोई भी सुख नहीं है कि जिसके साथ सिद्धलोक के सुख की तुलना कर ज्ञानी भगवान हमें उस सुख को समझा सके । सच है, वेद-वेदान्त भी तो यही कहते हैं-"नेति ! नेति ! " श्रीसिद्धचक्र यंत्र में दूसरे पद पर अलंकृत परम सुखी, आत्मानंदी श्री सिद्ध भगवान को हमारा कोटि-कोटि त्रिकाल वंदन हो ।
पच आवार जे सुधा पाले, मारग भाखे साचो । ते आचारन नमिये तेहशु. प्रेम करीने जाचोरे । भ. सि. ॥११॥ वर छत्तीस गुणे करी सोहे, युग प्रधान जन मोहे । जग बोहे न रहे खिण कोहे, सूरि नमुं ते जोह रे ।। भ. सि. ॥१२|| नित्य अप्रमत्त धर्म उवएसे, नहीं विकथा न कषाय । जेहने ते आचारिज नमिये,अकलुष अमल अमाय रे॥भ.सि.॥१३॥