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जप करने वाला पाप नहीं करता, सफल वही होता है जिसका मन पवित्र है । ३४८ % *%*
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सन्त निर्ग्रन्थ का ध्यान धरते चले, पाप तजके सब काम करते चलें । सद्गुणों का परम धन कमाते चलें, सिद्ध अर्हन्त में मन रमाते चलें ॥२॥ दुःख में तड़पें नहीं, सुख में फूले नहीं, प्राण जाए मगर धर्म भूले नहीं । प्रेम श्रद्धा के बल को बढ़ाते चलें, सिद्ध अर्हन्त में मन रमाते चलें ॥३॥
श्रीपाल रास
मैं एक दिन इसी राजधानी चंपानगरी से अपनी माता कमलप्रभा के साथ रीते हाथ, बिना वस्त्र के नंगा, असहाय बन प्राण लेकर भागा था। बस इसी श्रीसिद्धचक्रवत की शरण ने ही मेरे जीवन में एक अनूठा रंग ला, अनेक संस्मरणों का इतिहास बना दिया | इस प्रत्यक्ष चमत्कारिक मंत्र और व्रत की आराधना से मेरे अशुभ कर्मों की अंतराय ऐसी टूटी की मैं निहाल हो गया । आज मुझे अपने चारों दिशा में फैले विशाल राज-पाट प्रजाजन और परिवार से पूर्ण संतोष हैं। अधिक क्या कहूँ, मुझे चंपानगर के लंबे-चौड़े शासन पर राजकरते लगभग नौ सो वर्ष होने आये । मैंने कई बार धूप-छांह, सर्दी गर्मी देखी किन्तु इस व्रत के प्रभाव से आज तक मेरा सिर तक न दुःखा । सच है - "पहला सुख निरोगी काया । " अब तो मैं "शतं विहाय " निवृत्त होना चाहता हूँ ।
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एक दिन सचमुच चंपानगर के सम्राट् श्रीपाल कुंवर शुभ मुहूत, शुभ लग्न में अपने बढ़े सुयोग्य पुत्र त्रिभुवनपाल को राज्याभिषेक कर वे वानप्रस्थ बन गए । अर्थात् राजा और रानियों ने यह दृढ प्रतिज्ञा कर ली कि अब हम आजन्म विशुद्ध ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए श्री सिद्धचक्र का ध्यान और सिवाय परमार्थ के किसी भी आरम्भ-समारंभ, राजकीय आदेश, निर्देश में हस्तक्षेप न करेंगे। फिर सम्राट् अपनी सभी रानियों और परिवार के साथ घंटों बैठ कर सत्संग, स्वाध्याय ध्यानादि का अनुपम आनंद लेते । वे प्रातःकाल मंदिर में सविधि भगवान श्रीसिद्ध की पूजन, चैत्य-वंदन स्तवनादि करते समय बड़ी शांति से प्रत्येक सूत्र का शुद्ध उच्चारण कर उसके अर्थ - भावार्थ का चिंतन-मनन करते करते आनंदविभोर हो जाते । रानियों के कलापूर्ण संगीत भक्ति-नृत्य में एक अनूठा आकर्षण था । कई स्त्री-पुरुष बालक-बालिकाएं बड़ी श्रद्धाभक्ति और प्रेम से उनके साथ श्रीसिद्धचक की आराधना कर फूले न समाते ।
मासुन्दरी आदि सभी रानियाँ और सम्राट् श्रीपाव के हृदय से "अहं मम" का विष तो शरद ऋतु के मेघ के समान छूमंतर हो गया था, अतः उन्हें स्वाध्याय- ध्यान प्रतिक्रमण, पौषाधि करने वाले तपस्वियों की पगचंपी आदि सेवा करते जरा भी संकोच न होता । ये स्वालंबी बन बड़ी जयणा से तपस्वियों को धारणा- भोजन कराते, बालक-बालिकाओं
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