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अज्ञानी सदा सोया है तो शानी सदा जाप्रत । जाप्रत वही है जो सिवाय ईश्वर के छछ न देखे । हिन्दी अनुवाद सहित REGIST
R A२ ३४९ को धार्मिक शिक्षण देते, ऐसे अनेक आध्यात्मिक विकास के कार्यों में हाथ बँटा कर वे बड़े ___ आनंद से जीवन-मुक्त दशा का अनुभव कर परम पद मोक्ष की साधना करने लगे | जीवन इसी का नाम है । धन्य है सम्राद् श्रीपाल की।
चौथा खण्ड - ग्यारहवीं ढाल
(राग-श्री सिमंधर साहेब आगे) विजेभवे वर स्थानक तप करी, जेणे, बांध्यँ जिन नाम रे । चौसछि इन्द्रे पूजित जे जिन, किजे तास प्रणाम रे । भविका सिद्धचक्र पद वंदो जिम चिरकाले नंदो रे ॥ भ. सि. ॥१॥ जेहने होय कल्याणक दिवसे, नरके पण अजु-बाल । सकल अधिक गुण, अतिशयधारी, ते जिन नमि अघट टालु रे।। भ.सि.॥२॥ जे तिहु नाण समग्ग उप्पन्ना, भोग कम्म क्षोण जाणी । लेई दीक्षा शिक्षा दिये जनने, ते नमिये जिन नाणी रे॥ भ. सि. ॥३॥ महायोग, महा माहण कहिये, निर्यामक सत्थ वाह । उपमा एहवी जेहने छाजे, ते जिन नमिये उच्छाह रे ॥ भ. सि. ॥४॥
एक ही अनुपम साधनः-सम्राट्-श्रीपालकुंवर और उनकी महारानी मयणासुंदरी आदि रानियों का जीवन अब तो कुछ ओर ही बन गया था । वे बड़े सुखी स्थिरचित्त, आनंदी थे । उनका एक ही लक्ष्य था अपनी चित्त विशुद्धि और सदा सद्गुणों की पूर्णता के लिये सावधान रहना । वे कहते थे-रे मन ! तू भगवान श्रीसिद्धचक्र को बार बार प्रणाम कर । यह अविचल, विमल, मंगल स्वरूप, आनंद शांतिमय पद पाने का एक ही अनुपम साधन है। श्रीसिद्धचक्र यंत्र में नव-पद हैं, उसमें पहला पद गत भव में श्री बीसस्थानक तप आराधक चौसठ इन्द्रों से परि-पूजित+महागोप, *महामाइण, सार्थवाह, जन्म से ही मति, श्रुत, अवधि ये
+ महागोपः-भव-भ्रमण के दुःखों से मुक्त होने का सन्मार्ग-दर्शक परमोपकारी ।
* महामाइण:-पृथ्वी काय, अपकाय तेउ काय, वाउ काय, वनस्पतिकाय और अस काय के संरक्षक, आत्मज्ञानी ।
नियामकः---अपने सदुपदेशों से मानवों को तिराने में नाव के समान ।