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इन्द्रियों के वश होने से मन और बुद्धि में चंचलता पैदा होती है तो, आत्म-स्वरूप का लाभ होने से शांति । हिन्दी अनुवाद सहित SHARMER * *
३४५ कुछ भी पल्ले नहीं पड़ता। सच है, जलाशय से दूर पथरीली भूमि पर लाख घन-हयो चलाओ, श्रम करो, फिर भी वहाँ पत्थर ही रहेगा ।
उजमणा का यह अर्थ नहीं कि मानव चार दिन ढोल-नगाड़े गड़गड़ाकर, उत्सवमहोत्सवकी तड़क-भड़क, चकाचौध में खो जाय या जनता का मुंह मीठा करा कर ही छुट्टी पा ले । उजमणा का अर्थ है मानव जीवन में एक अनूठा परिवर्तन, चेतन के अन्तरालों में उजाला, मानसिक संघर्षों पर निजक, आ ध्णा की इतिश्री, मोहरालिका अन्त, सहजानंद का सूर्योदय, हृदय में एक अनुपम आनन्द की गुद-गुदी । अनादि काल की अंधश्रद्धा विश्वास और अपने हृदय की दुर्बलता से विमुख हो वीतराग दशा पाने का सही प्रयत्न ही वास्तविक श्रीसिद्धचक्र-व्रताराधन का फल और उजमणे की सार्थकता है।
श्रीसिद्धचक्र-व्रताराधक स्त्री-पुरुष साढ़े चार वर्ष की अवधि में ८१ आयंबिल की जो कठोर तपश्चर्या करते हैं उसका यही एक हेतु है कि-"करत करत अभ्यास के जड़ मति होत सुजान"-अनादि काल से भौतिक जड़ पदार्थों के मोह में उलझा हुआ यह चेतन, पर से उपर उठकर व में घुल-मिल जाए अर्थातू पौद्गलिक सुख की मूर्छा से मुक्त हो अपने सहजानंद की ओर मुड़ जाय । इसी प्रकार सम्राट श्रीपालकुंवर ने व्रताराधक खी-पुरुष व अन्य मनुष्यों को ज्ञान-दान, धर्मध्यान के उपकरण और उनके भोजनादि की उचित व्ययस्था, संघ-पूजा कर व्रत के अंत में द्रव्य और भाव उजमणे का लाभ लिया। श्रीमान् यशोविजयजी उपाध्याय कहते हैं कि यह श्रीपाल-रास के चौथे खण्ड की दसवीं ढाल संपूर्ण हुई। ___श्री जिनेन्द्र भगवान का "विनय' अर्थात् उनकी पवित्र आज्ञा का पालन और उनकी तन, मन, धन से भक्ति करने वाले पाठक और श्रोतागण को सुयश और आत्म-कल्याणमोक्ष की प्राप्ति होती है । सविधि आराधना कर उजमणा करे वे स्त्री-पुरुष धन्य हैं।
दोहा नमस्कार कहे एहवा, हवे गंभीर उदार ।
योगीसर पण जे सुणी, चमके हृदय मझार ॥१॥ सम्राट् श्रीपालकुंवर जब भगवान श्रीसिद्धचक्र की भक्ति-पूजन व उनके गुण-गान करने बैठते थे उस समय भावावेश में उनके मुंह से कई बार ऐसे हृदय-स्पर्शी अति