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तू अपनी निर्मल आत्मा का ध्यान कर, जिसके ध्यान में एक अंतर मुहूर्त स्थिर रहने से मुक्ति प्राप्ति हो जाती है। ३४२
6 श्रीपाल रास
अरिहंतादिक नवदने विषे, श्रीफल गोल उवंत | सामान्ये घृत खण्ड सहित सवे, नृप मन अधिको रे खन्त ॥ तप इ. ॥४॥ जिनपद धवलंरे गोलक ते रवे. शुचि कर्केतन अट्ठ | चोत्रीश हीरे रे सहित बिराजतुं, गिरुओ सुगुण गहि " तप. इ. ॥५॥ सिस पढ़े अड़ माणिक रातड़ां, वली इगतीस प्रवाल | धुमृण विलेपित गोलक तस दवे, मूरति राग विशाल । तप. इ. ॥ ६ ॥ पण मणि पीत छत्रीश गोमेद के, सूरि पदे उवे गोल | नील स्यण पचवीस पाठक पदे, दवे विपुल रंग गेल ॥ तप इ. ॥७॥ रिष्ट स्तन सगवीसते मुनि पदे, पंच राग पट अक । सगसद्धि इगवन्न सिसरी पंचास ते, मुगता शेष निःशंक ॥ तप इ. ॥ ॥ ते ते वर रे चीरादिक वे, नवपद तणे रे उद्देश | बीजी पण सामग्री मोटकी, मांडे तेह नरेश ॥ तप इ. ||९|| बीजोरां खारेक दाड़िम भलां, कोहोलां सरस नारंग | पूंगी - फल वली कलश कंचन तगा, रतन पुज अतिचंग ॥ तप इ. ॥ १०॥ जे जे ठामे रे जे ठवकुं घटे, ते ते उत्रे रे नदि । ग्रह दिग्पाल पदे फल फूलडा, घरे स वरण आनन्द ॥ तप इ ॥ ११ ॥
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उजमणा इसे कहते हैं: - सम्राट श्रीपालकुंवर ने अपने सिद्ध
की
अराधना के उपलक्ष में एक बड़े ही समारोह के साथ भारी महोत्सव ( उजमणा) आरंभ किया । मंदिरजी के विशाल सभा मंडप से चारों ओर हवा से लहराती रंग-बिरंगी ध्वजापताकाओं का शब्द कह रहा था कि रे मानव ! यह संसार हमारे समान चंचल है। तू अब इधरउधर न भटक सम्राट् श्रीपालक्कुचर के समान बड़े मनोयोग और उदार भाव, श्रद्धा से श्री सिद्धचक्र व्रत की आराधना और उजमणा कर अपना जन्म सफल बना ले । लाल-पीलेहरे रंग की चमकीली रोशनी का संकेत था कि रे मानव ! तू अब अधिक प्रमाद - मोह-ममता न रख, याद रख ! ये काले सिर के मानव पुण्य के साथी हैं, पाप का साथी कोई नहीं ।