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आत्म स्वरूप प्राप्त करने का सबसे सरल उपाय निष्काम कर्मयोग है। हिन्दी अनुवाद सहित KAKKAKA R
३४१ (९) तपपद-की आराधना में श्रीपालकुंवर बड़े ही शान्त और निःस्वार्थ भाव से .१२ प्रकार का तप करते थे । उनको प्रत्येक चैत्र शुक्ला और आश्विन-शुक्ला में आराधना करते जब पूरे साढ़े चार वर्ष हो गए तब वे श्रीसिद्धचक्र-व्रत का उजमणा करनेकी सोचने लगे । श्रीमान् यशोविजयजी महाराज कहते हैं कि यह श्रीपाल-रास के चौथे खण्ड की नवमीं ढाल सानंद संपूर्ण हुई । श्रीसिद्धचक्र व्रत की श्रद्धा और भक्ति से आराधना करने वाले पाठक और श्रोतागण को विनय और मु-यश की प्राप्ति होती है।
दोहा
हवे गजा निज राजनौ, लच्छी तणे अनुसार । उजमणुं देह लपताणु, गांरे पति ही उदार ॥१॥
सम्राट् श्रीपालकुंवर और रानी मयापासुंदरी दोनों ही पति-पत्नी श्रीसिद्धचक्र-व्रत से उजमणे के लिये बड़े ही उदार भाव और श्रम से बहुमूल्य वस्तुओं का संग्रह करने लगे।
चौथा खण्ड-दसवीं ढाल
( भोलीड़ा ईसारे विषय न राचिये ) विस्तीरण जिन भवन विरचिये, पुण्य त्रिवेदिक पोट । चंद्र चंद्रिकारे धवल भुवन नले, नवरंग चित्र विसीठ ॥१॥ तप उजमणुं रे इणि परे कीजिये, जिम विरचे श्रीपाल । तप फल वाधे रे उजमणे करी, जेम जल पंकज नाल ।तप. इ. ॥२॥ पंच बरणनारे शालि प्रमुख भला, मंत्र पवित्र करी धान्य । सिद्धचक्रनी रे रचना तिहां करे, संपूर्ण शुभ ध्यान ।। तप. इ. ॥३॥
* वारह प्रकार के तप का वर्णन पृष्ठ ३०३ के नोट में देखें।