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प्रेम यही है. हे सखे ! दिल का टुकडा तोड़ । दे दे जिसको चाह हो, मुम्ब दुःस्व से मुह मोद् ॥ ३३८
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RGARHKAR श्रीपाल रास पदकी इच्छा नहीं किन्तु वीतराग धर्म से युक्त और दरिद्रता सहर्ष स्वीकार है। मुझे सुख की लालसा और दुःख का भय नहीं । बस, जीवन में एक यही इच्छा है कि मेरा रोम रोम सर्व भासित धर्म से ही सदा ओतप्रोत वासित बना रहे। मुझे वह सुअवसर शीघ्र ही प्राप्त हो कि मेरे इस क्षणभंगुर शरीर से सिवाय धर्मक्रिया के अन्य कोई क्रिया न हो। वे द्रव्य भोग भोगते थे किन्तु उनका अंतरंग हृदय उनसे अलबामल समः सदा असा की हत. श। जैसे कि वैद्य-डाक्टरों की दवा की पुड़ियाएं कोई लेना पसंद तो नहीं करते हैं किन्तु फिर भी उनको दवा लेना ही पड़ती है। अतः उसका विशुद्ध श्रावकचार की साधना की ओर विशेष लक्ष था । सच है, श्रावकाचार ही जीवन है ।
श्रावक्र वही है जो सदा हंसमुख प्रसन्न मन, देव-गुरु भक्ति कारक ब्रताराधक फला फूला निर्भय रहे। उसके आचार-विचार और उपचार में एक अनूठी प्रतिभा, आकर्षण हो । उसका नाम सुनते ही एक बार मानब चौंक पड़े। जैसे कि अानन्दजी, कामदेवजी, खेमादेदराणी, मंत्री तेजपाल, वस्तुपाल भामाशाह, पेथड़शाह आदि-किन्तु खेद है कि आज उल्टी गंगा बह रही हैं। श्रावक-श्राविकाओं की रोती मूरत, देवगुरु-धाराधन की विमुखता, आचार-विचार-उपचारकी शिथिलता डरपोक जीवन एक प्रत्यक्ष भारी विचित्र समस्या बन रहा है। श्रावक नाम सुनते ही जनता अपने नाक भोंह सिकोड़ने लगती है । कई ओछे लोग “श्रावक-बनिया" याने पहले नम्बर का ठग, धोखेबाज, कामचोर, ईर्षालु, सुस्तराम, चार सो बीस-भद्दे शब्द बोलते नहीं लजाते । आज घर घर में, बाजार-मंदिर-उपाश्रय-धर्मस्थानों में इर्षा, द्वेष और पक्षपात की भयंकर होली जल रही है। भाई को भाई नहीं चाहता: वेटा बाप को उखाड़ फेंकने की सोचता है, बहू सास को अपने तलवे चटाने की धुन में है; उसे बतेन-बासन, चूला फूकना, हाथ से धान्य पीसना नहीं सुहाता । पड़ोसी को मुंह फुलाए घूरता रहता है। मकान-मालिक किरायेदारों का शोषण करना चाहता है तो किरायेदार भी कम नहीं; वह भी सेठ को बिना छकाए नहीं रहते ।
इससे अधिक और क्या होगा ? जैन कुल में जन्म पाने वाले मानव और श्रीसिद्धक्र-नवपद तप करने वाले स्त्री-पुरुषों के जीवन में इन दुर्गुणों का होना एक अभिशाप है। अरे ! जहां हर छठे माह चैत्र शुक्ला और आश्विन शुक्ला में आत्मशुद्धि के महापर्व की आराधना हो वहाँ के श्रीसंघ और श्रीसिद्धचक्र-व्रताधारक स्त्री-पुरुषों की यह दशा ! उनके जीवन में राग, द्वेष, कषाय, ईर्षा, आपसी कलह एक-दूसरे को पछाड़ने की भावना, अविनयादि का होना क्या शोभा देता है ? नहीं। जैनधर्म के संपर्क में आने के बाद इन दुर्भावनाओं को रखना बहुत बुरी बात है। सच है,