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राही अपनी राह लग; मत चल राह कुराह । गिरने की क्यों चाह हो, ले उड़ने की थाह ।। हिन्दी अनुवाद सहित - ** * *** * * * ३३५ तीर्थ यात्रा करी अति घणी, संघ पूजा ने रह जत्त । मे. ।
आराधे दर्शन पद भलु, शासन उन्नति दृढ़ चित्त । मे. म. ॥११॥ सिद्धान्त लिखावी तेहने, पालन अर्चादिक हेत । मे. । नाण-पद आराधन करे, सज्झाय उचित मन देत ।। मे. म. ॥१२॥
(E) दर्शनपद की आराधना में सम्राट् श्रीपालकुवर ने सपरिवार अनेक तीर्थयात्राएं की, धर्मशालाएं बनवाई, रथ-यात्रा आदि अनेक स्थानों पर उत्सव महोत्सव किए, स्वामीवात्सल, संघ-पूजन कर श्रीजिनशासन की प्रभावना की । (७) झान-पद की आराधना में उन्होंने कई नूतन विशाल ज्ञान-मंदिर बनवा कर उसमें हस्तलिखित जैनागम-शास्त्र व्याकरण काव्य अलंकार, ज्योतिष-आयुर्वेदादि ग्रंथों का संग्रह किया। छात्रवास, गुरुकुल आदि लोक-कल्याणक संस्थाएं स्थापित कर उनके संचालन का संपूर्ण भ्यय अपने भंडार से देश और स्वयं भी राम-सनी दोनों सद्गुरु से तत्व-ज्ञान का अध्ययन कर ज्ञानपद की आराधना करते थे। व्रत नियमादिक पालतो, विरतीनी भक्ति करत । मे।
आगधे चारित्र धर्म ने, रागी यतिधर्म एकंत || मे. म. ॥१३!! तजी इच्छा इह पर लोकनी, हुई सघले अप्रतिबद्ध । मे. । षट् बाह्य अभ्यन्तर षट् करी, आराधे तव पद शुद्ध ।। मे. म. ॥१४॥ उत्तम नवपद द्रव्य भाव थी, शुभ भक्ति करी श्रीपाल । मे. । आराधे सिद्धचक्र ने, निन पामे मंगल माल ॥ मे. म. ॥१५॥
(८) चारित्र-पद की आराधना में सम्राट् श्रीपालकुवर सदा व्रत-नियमों का पालन करते हुए भगवान से प्रार्थना करते-हे प्रभो ! मुझे वीतराग धर्म से रहित चक्रवर्ती
आत्म-स्वभाव, ज्ञान-ध्यान की साधना में लगे रहते हैं। मुझे भी एक दिन ऐसा ही सु-अवसर प्राप्त हो इसी प्रकार शुभ विचारधारा इतनी उत्कृष्ट हो कि आप के तन की रोम-राजि हर्ष से प्रफुल्लित हो उठे। (४) बहुमान-साधु-साध्वी को देख दोड़ कर उनके चरणस्पर्श करना (५) प्रिय वचन-मानव से भूल होना स्वाभाविक है। यदि साधु-साध्वो को किसी बात के लिए कुछ सुझाव दना उचित हो या कोई शंका-समाधान ही करना हो तो ऐसे ढंग से बातचीत करें कि उनको अप्रिय न लगे।