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पांच तत्त्व का पुतला, मानुष धरिया नाम । एक कला के बोछरे, बिकल्ल भयो मब ठाम ।। ३३६ %* *
ॐ
श्रीपाल रास संघ सेवा साहित्य प्रकाशन आदि सत् कायों में हाथ बटाते समय कुछ पिछड़ जाते हैं । यह उचित नहीं । ऐसा करने वाला व्यक्ति स्वयं अपने आपको धोखा देता है । महा पुरुषोंने तो स्पष्ट चेतावनी दी है " चला लक्ष्मीः, चला प्राणा"- धन और प्राण दोनों चंचल है। रे मानव ! इन से तू अधिक परमार्थ कर सुयश पा ले, अन्यथा एक दिन तू यों ही हाथ मलता रह जायगा । तेरे मन की मन में रह जायगी।
श्रीपालकुंवर द्रव्य और भाव दोनों प्रकार से आराधना का लाभ लेते थे। उन्होंने (१) अरिहंत पद की-आराधनार्थ बावन जिनालय वाले गगनचुंबी नव सौधशिखरी अच्छे कलापूर्ण मंदिर बनवाए। अनेक प्रतिष्ठांजनशलाकाएं और मंदिरों के जीर्णोद्धार करवाए । उनकी ओर से मंदिर-उयाश्रयों में सदा एक न एक उत्सव-महोत्सव होते ही रहते थे। (२) सिद्धू-पद की आराधना में सदा वे रूपातीत सिद्ध स्वरूपी अपनी आत्मा का ध्यान करने का प्रयत्न करते । (३) आचार्य-पद की आराधना में शासन सम्राट् परम पूज्य बहुश्रुत गीतार्थ आचार्यों को सादर विनंती कर उनको अपनी राजधानी में चातुर्मास करा उनके सत्संग का लाभ लेते । उनको वस्त्र, पात्र, शास्त्र, आहार, औषधादि दान दे उनकी अनेकविध सेवा शुश्रूषा कर नित्य सविध +पांच अभिगम से वंदन करते । (४) उपाध्याय पद की आराधना में वे अध्यापक और विद्यार्थियों की प्रगति के लिये कई गुरुकुल, छात्रावास खोलते । होनहार छात्रों को दूर-दूर से बुला कर उन्हे छात्रवृत्ति दे अच्छे प्रतिभाशाली विद्वान बनाते | उपाध्यायजी महाराज को अनेक जैनागम शास्त्रों को सोने-चांदी के सुन्दर अक्षरों में लिखवाकर भेट करते । (५) साधुपद की आराधना में सम्राट् श्रीपालकुंवर अपनी राजधानी चंपानगर के उपाश्रयों में विराजमान पूज्य आचार्य, उपाध्याय, साधु, साध्वी, को नित्य वंदन करते, उनको आहार-पानी की प्रार्थना करते | यदि चे किसी दिन अपने घर आहार-पानी के लिये पधारते तो उनको दान देनेके पांच दूषणों-दोषों का त्याग कर दान देते समय दान के +पांच भूषण हैं उनका लक्ष्य रख कर वे दान देते। ओघा-रजोहरण पात्रे, तरपणी, वस्त्र शास्त्र आदि से श्रमण-समुदाय की भक्ति करते ।
* पांच-अभिगम का वर्णन पृष्ठ ४७ के नोट में देखिये ।
x पांच दूषण:-(१) अमादर-साधु-साध्यो, अतिथि को देख बड़-बड़ाना । (२) विलंबसाधुसाध्वी, अतिथि का देख उनका स्वागत कर आहार-पानी देने में टालमटोल करना । (३) निंदासाधु-साध्वी को अनिच्छा से दान देकर उनकी जनता में बुराइयां करना । (४) कटु माषणसाधु-साध्वी को भली-बुरी सुना कर दान देना । (५) दान देकर पछताना ।
+पांच-भूषण-(१) आनन्द-अपने द्वार पर साधु-साध्वी को देख प्रसन्न होना । अश्र-सन्तों देख इतना अधिक हर्ष हो कि आखों से अश्रुधारा बहने लगे। धन्य है । धन्य है !! गुरुदेव । आप सदा