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हृदय भीतर आरसी, मुख देखा नहीं जाय । मुख तो तब ही देखि है, जब मन की दुविधा जाय ॥ हिन्दी अनुवाद सहित %%%%% ३३५
प्रवृत्ति कैसी है ? : - प्रवृत्ति दो प्रकार की होती है। अच्छा सोचना, अच्छा बोलना, अच्छे कार्य करना; मन, वचन, काया की सत्प्रवृत्ति है और बुरा सोचना, बुरा बोलना, बुरे कार्य करना असत्प्रवृत्ति है। भगवान सदा सत्प्रवृत्ति में ही रहते हैं, उसी प्रकार उनके आसयक भी यदि सकृषि का ही आवरण करते रहें तो दुःख का अस्तित्व ही न रहे। सिद्धचक व्रत की यही सार्थकता है कि क्रोध, मान, माया, लोभ और ईर्षा से दूर रहें, सदा सत्प्रवृत्ति में रहने की अपनी आदत डालें । मयणासुन्दरी के समान सदा सिद्धचक्र के ध्यान में मग्न रहते हुए अपने प्राणनाथ, सासससुर की सेवा सुश्रूषा करके अपना आत्म कल्याण करें । श्रीसिद्धचक्र आराधना अर्थात् नवपद ओली की आराधना वर्ष में दो बार होती है, इसका यही हेतु है कि साधक स्त्री पुरुष हर छठे माह अपनी आत्मा के गुण-दोष का संशोधन कर आध्यात्मिक विकास में आगे बढ़ें ।
भागने की सोचते हैं : -सम्राट् श्रीपालकुंवर ने रानी मयणासुन्दरी के अनुरोध से प्रसन्न हो, श्री सिद्धचक्र - व्रताराधन की स्वीकृति प्रदान कर दी। पश्चात् वे दोनों राजा-रानी बड़े शान्त भाव प्रसन्न मन से व्रत आराधना करने लगे । उनको अन्य नवपद व्रत आराधक बाल वृद्ध स्त्री-पुरुषों के साथ स्वस्तिक, खमासमण, प्रदक्षिणा, चैत्यवंदन, स्तुति, काउसग आयंबिलादि विधिविधान करते बड़ा आनंद आता । वे प्रतिक्रमण और चैत्यवंदनादि में आने वाले मूल-सूत्र और खमासमण के दोहों के अर्थ का चिंतन-मनन करते करते आनंदविभोर हो जाते। उनके देह की रोम-राजि विकसित हो उठती । आज तो व्रताराधक स्त्री-पुरुष, तू चल में आया, चट-पट विधिविधान कर भागने की सोचते हैं। कौन चिस की प्रतीक्षा करे, कौन विधि-विधान के सूत्र - अर्थों का मनन-चिंतन करे ? यह उचित नहीं । विधि-विधान से अनजान स्त्री-पुरुषों को प्रत्येक क्रियो करते समय उनको अपने साथ रख, उनका उत्साह बढ़ाओ, विधि-विधान के प्रत्येक सूत्र और अर्थ का मनन-चिंतन करो। इस में महान् लाभ हैं । व्रताराधन के दो भेद हैं। द्रव्य और भाव (१) स्वस्तिक, प्रदक्षिणा, खमासमणा, पच्चक्खाण आदि करना द्रव्य - आराधना है ( २ ) अपने मन, वचन, और काया के शुभ योग से क्रियाविधि में आने वाले सूत्र - अर्थो के गूढ़ रहस्य को समझ कर आराधना करना तथा बड़े उदार भाव से साधु, साध्वी, श्रावक-श्राविका, जिन मंदिर, जिर्णोद्धार और ज्ञान-साहित्य प्रकाशन में अपनी गाड़ी कमाई के धन का सदुपयोग करना भाव क्रिया है । कई महानुभाव साधन-संपन्न हैं, उनके पास पुण्योदय से पैसे की कमी नहीं फिर भी वे महानुभाव