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________________ जो तू सांचा वणिक है, सांधी हाट लगाव | दर झाडू देइके, कूडा दूरि बहाव || ३३४* * ॐ श्रीपाल राम चलती बनती हैं, किन्तु मैं तुम्हें पाकर धन्य हो गया । मैं तुम्हारी इस मंगल कामना का हृदय से स्वागत करता हूँ। तुमने मुझे गत भव में शिकार आदि दुर्व्यसनों की राह से बाल-बाल बचा कर यहां मनुष्य भव पाने का सुअवसर दिया । इस जन्म में भी तुमने मुझे समय समय पर अपने आदर्श अभिप्राय दे कर अध्यात्मिक विकास की और बढ़ने में मेरा बहुत कुछ साथ दिया है। सच है, स्त्री हो तो ऐसी हो; जो कि मयणसुन्दरी के समान अपने प्राणनाथ और सास आदि परिवार की हृदय से सेवा-शुश्रूषा करे और उनको सन्मार्गदर्शन दे श्रीसिद्धचक व्रताराधक बना अपना नाम अमर कर दे, त बतो महिलाओं को श्री सिद्धचक्र की ओली करना सार्थक है- अन्यथा काया कष्ट तो यह जीव अनादि से करता आ रहा है। आंखे खोलो, आगे बढो :- वताराधक बहिनो ! उठो, आंखें खोलो, आगे बढ़ो ! आप वर्षों से श्रीसिद्धचक्र - नवपद ओली करती चली आ रहीं हैं। आप में मयणासुन्दरी सहा कितनी सहनशीलता, क्षमा, धैर्य, साहस और निर्भयता जाग्रत हुई १ क्रोध, मान, माया, लोभ, ईर्षा, परिवार से लड़ने-झगड़ने और छोटे बच्चों को मार-पीट करने, झिड़कने की आदत दूर हुई ? नहीं, तो फिर आपके हृदय पर तपाराधन का क्या प्रभाव पड़ा ? नवपद ओली का यह अर्थ नहीं कि आप वर्ष में दो बार स्वस्तिक, खमासमण, और प्रदक्षिणा के फेरे फिर कर संतोष मान लें, आयंबिल ( दिन में एक बार निरस आहार) कर तन को सुका कर चुप-चाप बैठ जाएं | नवपद ओली करते समय आप प्रत्येक पद की बीस माला अर्थात् दो हजार जाप क्यों करते हैं ? जाप से आपकी दरिद्रता दूर हुई ? घर का क्लेश शांत हुआ ? नहीं। यह एक का ही कारण है कि आपने आराधना की, किन्तु अपने आप को नहीं समझा कि मैं कौन हूँ मेरी प्रवृत्ति कैसी है। मैं कौन हूँ :- मानव जब नवपद आराधना करना आरम्भ करते हैं उस समय उसे स्वयं अनुभव होने लगता है कि मैं जिन अरिहंत सिद्धादि के जाप और आराधना करता हूँ उसी के समान यह मेरा पवित्र आत्मा है, आत्मा ज्ञाता द्रष्टा है, जिस में अपार बल है, वह मैं हूँ, मेरा सांसारिक विषयों से कुछ भी संबंध नहीं है। मेरी आत्मा शुद्ध है, इस में परमात्मा के सभी गुण विद्यमान हैं। इस प्रकार जैसे जैसे आत्मतत्त्व का अनुभ होता है वैसे-वैसे इन्द्रिय- भौतिक सुख सुलभ होने पर भी नवपदसिद्धचक्र आराधक स्त्री-पुरुषों को वे सुख नहीं रुचते हैं। जहां रुचि मंद हुई कि फिर तो सांसारिक सभी झुंझटें भौतिक सुख की तृष्णा, कलह कषायादि अपने आप ही मंद हो जाते हैं ।
SR No.090471
Book TitleShripalras aur Hindi Vivechan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNyayavijay
PublisherRajendra Jain Bhuvan Palitana
Publication Year
Total Pages397
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size12 MB
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