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तीन लोक चोरी भयो. सबका सरबस लीन्ह । बिना मुडका चोखा, पार न काहू चिन्ह ।। हिन्दी अनुवाद सहित NIRM-964-9- *-* -२ ३३३ नत्र जिन घर नव पडिमा भलों, नव जिर्णोद्धार करावि, मे. । नानाविध पूजा करी, जिन, आराधन शुभ भाव । मे. म. ॥६॥ एम सिद्ध तणो प्रतिमा तणुं, पूजन त्रिहुं काल प्रणाम, मे. । तन्मय ध्याने सिद्धनुं करे आराधन अभिराम ॥ मे. म. ||७|| आदर भगति ने वंदना, वेयावच्चादिक लग्ग, मे.। शुश्रुषा विधि सांचवी, आराधो सूरि समग्ग ॥ मे. म. In अध्यापक भगतां पति, वसनाशन ठाण बनाय, मे. । द्विविध भगति करतो थको, आराधो नृप उवज्झाय ॥ मे. म. ॥९॥ नमन वंदन अभिगमन थी, वसही अंशादिक दान, मे.। करतो वेयावच्च घणु; आराधे मुनि पद ठाण ॥ मे. म. ॥१०॥
वनों में बांसंती खिली थी, चारों ओर पुष्पों के झरते पराग से दिशाएं पीली हो चली थीं । दक्षिणी पवन देश-देश के फूलों की गंध उड़ा कर ला रहा था, । चारों ओर स्निग्ध नवीन हरियाली छा रही थी। सम्राट श्रीपालकुंवर स्वर्ण सिंहासन
पर बेठ बड़े आनंद से अपना देनिक कार्यक्रम राज-का. का संचालन कर रहे थे। उनके लोक व्यवहार से स्पष्ट झलक रहा था कि उन्हों ने परम पूज्य राजर्षि अजितसेन के सस्संग से प्रभावित हो अपने जीवन का भोड़ बदल दिया है, अब वे बड़े वेग से मोग में योग की साधना कर रहे है, अर्थात् उनके शयन, विलेपन, भोजन, पखालंकार घारण, गीत-गान श्रवणादि प्रत्येक कार्य सदा अनासक्त भाव से ही होते थे । एक दिन रानी मयणासुंदरी ने कहा-प्राणनाथ ! अब श्रीसिद्धचक्र व्रताराधना के दिन निकट आ रहे हैं। गत आराधना के समय हम लोग इधर उधर प्रवास में थे, मार्ग में कई असुविधाओं के कारण हम लोग मनचाहा लाभ न ले सके, अब तो हमारे पास धर्म के प्रभाव से इन्द्र के समान ऐश्वर्य, शारीरिक स्वास्थ्य, राज-पाट आदि साधव उपस्थित हैं। अतः मेरा आप श्रीमान् से सादर अनुरोध है कि अब हमें अति उत्कृष्ट भाव और तन-मन-धनसे श्रीसिद्धचक्र व्रत आराधना करना चाहिये।
सभ्राट् श्रीपाल कुंबर-प्रिये! संसार में रत्नजड़ित हार, कंगन, भुजबंध, गमनचुम्बी राजप्रासाद, बहुमूल्य वस्त्रालंकारादि की कामना के लिये मुंह फुलाने वाली नारियों की कमी नहीं । अनेक स्त्रियां खान-पान, अपनी मनचाही सुविधाओं के जाल में फंस कर अपने पति को विष देने में संकोच न कर, शीलवत से हाथ धो एक दिन इस संसार से