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मन को सदा रोकते रहिये, चलने इस को न दें । जब जब मन दौड़े भोगों में, समझा कर लोटा लें। हिन्दी अनुवाद सहित NRS SAHRITHER ३२७ उपाश्रयादि स्थावर तीर्थ हैं और साधु-साध्वी, ज्ञानवृद्ध, वयोवृद्ध, तपोवृद्ध श्रावकश्राविकाएं, माता-पिता, ब भाई आदि जंगम-तीर्थ हैं । इन की आशातना से प्रायः अशातावेदनीय कर्म का बंध होता है । ये अन्धे, काणे, लूले, लंगड़े, गूंगे, बहरे, रोगी
और निर्धन व्यक्ति अशातावेदनीय कर्म के प्रत्यक्ष उदाररण हैं । रानी- गुरुदेव ! प्राणनाथ __ को मुनि अशातना के पाप से मुक्त होने को अब क्या करना चाहिये ? मुनि- रानीजी!
यों तो धर्मशास्त्रों में कर्म-मल से मुक्त होने के अनेक मार्ग हैं किन्तु राजा को यदि अपने जटिल कर्मों से मुक्त होना है तो उन्हें श्रीसिद्धचक्र महामंत्र की आराधना करना चाहिये।
हृदय से सराहनाः-रानी-गुरुदेव ! हम दोनों पति-पत्नी आपकी आत्रानुसार अवश्य ही श्रीसिद्धचक्र की आराधना करेंगे । आपकी इस कृपा के लिये आपको बहुतबहुत धन्यवाद । पश्चात् रानी ने सविधि व्रत सम्पूर्ण कर, एक भारी समारोह के साथ उजमणा (व्रत की अन्तिम विधि उत्सव ) किया। जिसे देख गनी श्रीमती की अन्य आठ सखियां और राजा के सातसौ साथी चकित हो गए। सभी ने एक स्वर से राजा को धन्यवाद दे श्रीसिद्धचक व्रत की सराहना की। अन्य दिवस ते गया सिंह नृप गामड़े रे, भांजी ते बलिया लई गोवम्ग रे । केड़ करीने सिंहे मार्याते मरी रे, कोढ़ी हुओ क्षत्री मुनि उसग्ग रे।।साँ.२२॥ पुण्य प्रभावे राजा हुओ श्रीकांत तू रे, श्रीमती राणी मयणासुंदरी तुज्ज रे। कुष्टिपणुजल मज्जन इंच पणुं तुम्हे रे, पाम्युंए मुनि आशानना फल गुज्ज रे साँ सिद्धचक्र श्रीमती वयणे आराधियु रे, तेहथो पाम्यो मघलो ऋद्धि विशेष रे । आठ सखी रानीनु तप अनुमोदियु रे, तेणें ते लघु देवी हुई तुझ शुभ वेष रे सां॥ सांप खाओ तुझ आठपायें कह्यु शोक्यने रे, तेणे सोपे दंसी न टले पाप रे । धर्म प्रशंसा करी गणा हुआ ते, सातसे रे, घात विधुरते सिंह लिये व्रत आप रे सा. मास अणसण अजितसेन ते हुं हुओ रे, बाल पणे तुज राज हर्यु ते गण रे । बांधी पूरव वैरे तुझ आगल धरे रे, पूरव अभ्यासे मुझ आव्यु नाग रे सां जातिसंभारी संयम नहीं लही ओहिने रे इहाँ आव्यो जेणे जेवा कीधा कर्म रे। तेहने तेहवां आव्या फल सुख दुःख तणा रे सद्गुरुपाखे जाणे कुण ए मर्म रे सां