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________________ देखने में है शीतल तृष्णा, पर अत्यन्त तपाती। पहिले राई तिल सम होती, पीछे गिरि हो जाती। ३२६ ॐ256*5ARKS श्रीपाल रास अनुरोध है कि आप मुनि को अपने राजमहल में आमंत्रित कर उनसे अपने अपराध की क्षमायाचना करे, सत्संग का लाभ लें । राजाने प्रसन्नता पूर्वक उसी समय मुनिको युलाने के लिये अपने सेवको को भेजा । सज्जन जे भूडु करता रूडं करे रे तेहना जगमा रहेशे नाम प्रकाश रे। आंबो पत्थर मारे तेहने फलदिये रे नंदन आये कापे तेहने वासरे॥सां.।।१६।। मुनि कहे महोटा पानकनुं पालगुं रे, तो पण जो होय एहनोभाव उल्लास रे। नवपदजपतांतपतां तेहन तप भलं रे,आराधे सिद्धचक्र होय अघ नाश रे सां.२० पूजा तप विधि सीखी आराध्यु नृपे रे, राणी साथे ते सिद्धचक्र विख्यात रे । उजमणा मांहे आठे राणीनी सही रे,अनुमोदे वली नृपर्नु तयशत सातरे सां.२१ बुगई का बदलाः-राजा मुनि की शांत मुद्रा, उनका हंसमुख स्वभाव देख आनन्दविभोर हो गया। उसने मन ही मन कहा - अरे ! धन्य है इन क्षमासागर मुनिराज को । मैंने व्यर्थ ही कष्ट दे इनका भारी अपमान करने की धृष्टता का फिर भी इन के नाक पर सल न आया । इन संत के स्थान पर यदि मैं होता तो न जाने क्या होता । में जीते जी तो मेरे वैरी की पेढ़ी न चढ़ता | सच है- "क्षमा बदन को होत है, ओछन की उत्पात"-आम के पेड़ को पत्थर मारो वह मीठा फल देता है । चंदन का पेड़ अपने घातक कुल्हाड़े को अनूठी सुगन्ध प्रदान कर उसका स्वागत करता है । धन्य हैं वे जीवात्माएं जो कि बुराई का बदला भलाई से दे अपना नाम अमर कर जाते हैं । रानी ने मुनि को सादर वंदन कर कहा- परम कपालु गुरुदेव ! इस धृष्टता के लिये हम आपसे बार-बार क्षमा चाहते हैं। खेद है कि मेरे प्राणनाथ के प्रमादरश आप को अकारण ही एक भारी कष्ट का सामना करना पड़ा । मुनि- रानीजी ! कष्ट ! समभाव दशा में भी कहीं कष्ट शेष रहता है ? नहीं । कष्ट का मूल है पर का मोह, पर अत में और मेरे में अपने आपको खो देने का पागलपन । पर-वश मानव के प्रति राग-द्वेष, क्रोधादि को स्थान देना अपने मन की दुर्बलता है । इस दुर्बलता से मुक्त मानव सदा सुखी रहता है। मुनि के क्षणिक सत्संग और उपदेश ने राजा रानी के जीवनका रंग बदल दिया । दोनों के हृदय गद्गद हो उठे । उन की आंखो से अधारा बहने लगी। राजा ने कहा-धन्य है !! परम तारक गुरुदेव, आज आपने हमारे यहां पधार कर बड़ी कृपा की। सच है- "गुरु दीवो गुरू देवता, गुरू बिन घोर अंधार । " रानी-गुरूदेव ! तीर्थ की आशातना से कौनसे कर्म का बन्ध होता है ? मुनिरानीजी ! तीर्थ के दो भेद हैं । ऐक स्थावर-तीर्थ दूसरा जंगल । जिनप्रतिमा, शास्त्र, जैन
SR No.090471
Book TitleShripalras aur Hindi Vivechan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNyayavijay
PublisherRajendra Jain Bhuvan Palitana
Publication Year
Total Pages397
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size12 MB
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