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________________ जैसे कदली तरू के छ ले, मा निकरता नाही । ज्यों ज्यों करे विचार न पावे, मार जगत के माही ___ हिन्दी अनुवाद महिस -I S -52-%C5 ३१५ ___ उसने उन मुनि को जल से बाहिर निकाल कर उनको मछित अवस्थामें ही नदीके तट पर पटक भाग निकला, फिर उसने राजमहलमें आकर अपनी रानी श्रीमती से कहा कि आज जंगल में बड़ा मजा आया, वहां दो नंगे सिर सेबड़े मिल गए थे । एकको तो मेरे साथियों ने तड़ातड़ दो चार चपतें लगाई और दूसरे का मैने उसके कान पकड़ कर जलमें डुबाना चाहा किन्तु मुझे उसकी शांत मुद्रा पर कुछ दया आ गई अत: वापस उसे जलसे बाहर निकाल कर वहीं नदीके तट पटक कर मैं तो यहां चला आया। हृदय कांप उठा:-राजा श्रीकान्त की बात सुन रानी श्रीमती का हृदय कोप उठा । उसने कहा - प्राणनाथ ! आपने यह क्या किया ? एक साधारण जीवको सताने से भी मानवको अनेक जन्मों तक भयंकर दुःखों का सामना करना पड़ता है तो भला फिर आपने तो एक त्यागी तपस्वी मुनिराज की भारी आशातना की, एवं संतको अकारण महान कष्ट पहुंचाया है, अतः अब आपको न मालूम कब तक इस पाप का कटु फल भोगना पड़ेगा । अबकी बार तो रानी श्रीमती के शब्दों ने राजा के आचार-विचारों की कायापलट कर दी। प्रिये ! खेद है कि सचमुच मैंने एक सन्त मुनिराज का भारी अपराध किया है। अब मैं भविष्य में कदापि ऐसी अनुचित भूल न करूंगा। एक दिन राजा श्रीकान्त अपने राजमहल की अटारी पर बैठे थे, सहसा उनकी दृष्टि नगर में जाते एक मुनि पर पड़ी । उन्हें देखते ही वे एकदम आपे से बहार हो गए। उन्होंने आवेश में आकर कहा-द्वारपाल ! जाओ रक्षाधिकारी से कहो कि उस सेवड़े को इसी समय धक्के मारकर नगर से बहार कर दे । यह न जाने कहां से इधर आ निकला । नगर को गंदा करेगा । एक परम योगी शांतमूर्ति संत को घरके मारते देख नगर में चारों ओर भारी हलचल मच गई। रानी श्रीमती के कान पर यह वात पढ़ते ही उसका सिर ठनका। उसने राजा से कहा-प्राणनाथ ! आप श्रीमान के अभिवचन का यही भूल्य ? हाथी के दांत बाहर निकलने के बाद अन्दर नहीं जाते "प्राण जाहि पर वचन न जाहि ।" आपने स्पष्ट शब्दों में कहा था कि अब मैं कदापि किसी संत-महात्मा को कष्ट न दूंगा। फिर आज राज-सेवकों ने मुनि को धक्के मार कर महान् कष्ट दिया | अकारण राह चलते किसी जीवात्मा को सताना, उनकी मंगल साधना में रोड़े अटकाना भयंकर दुर्ति को नौता देना देना है। आपको मैंने पहले बहुत कुछ समझाया था, फिर भी न जाने वापस इस दुर्मति ने आपके मंगलमय भावी जीवन को महान संकट में ढकेलने का अवसर दिया । नाथ ! बडे भाग्य से ही तो हमारे सौभाग्य का भूरज उगा है जो आज सवेरे ही अपने नगर में एक परम योगीराज पधारे थे, आपकी भूमि धन्य हुई । मेरा आपसे सादर
SR No.090471
Book TitleShripalras aur Hindi Vivechan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNyayavijay
PublisherRajendra Jain Bhuvan Palitana
Publication Year
Total Pages397
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size12 MB
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