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___थात्मभाव द शास्त्र हाथ लो, काट' अहंता ममता । यथा प्राम संतुष नित्य रह. धार अनुपम ममता । ३२४ 46 *6* AKACK-SHA
धीपाल रास राजा भाखे नवि करवू फरि एहर्बु रे, वोता केना इस वासर जाम रे । गोल थकी मुनि दीठो फिर तोगोचरी रे, चिचारी राणीनी शिक्षा नाम रे सां.१५/ नगरी विटाली भीखे कहे नृप उल्लंडने रे, काढो बाहिर एहने झाली कंठ रे । राणीए दीठा गौख थकी ते काढ़ता रे, राजाने आदेशे लागालंठ रे ॥सा१६॥ राणी रूठी राजाने कहे शुं करो रे, बौतानु बोल्यु पालो न वचन्न रे। मुनि उपसर्गे सर्गे जावू दाहिलं रे, नरके जावा लागयु छे तुम मन्न रे।।सां १७|| नृप उपशमियो मुनि तेड़ी घरे रे, राणी माखे राजा ए अन्नाण रे । मुनि उपसर्गेपाप कर्यु इणे मोटकं रे. ए छूटे ने कहिये कॉई वित्राण रे।सां.॥१८॥ ... नंगे सिर भूत बन बैठा :-एक दिन श्रीकान्त राजा अपने धूर्त गुएडे साथियों को साथ ले किसी एक सधन वन में शिकार खेलने निकला ! वहाँ एक वृक्ष के नीचे एक मुनि ध्यान कर रहे थे। उन्हें देख राजा ने अपने साथियों को सुना कर कहाअरे। यह नंगे सिर कौन भूत बन बैठा है? मार भगाओ, साले कोड़ी को-कहीं अपशकुन करेगा। राजा के कहने मात्र की देर थी, गुण्डों ने तड़ा-तड़ महामुनि को दोचार चपत लगा दी। यह दृश्य देख राजा हर्ष से उछत पड़ा। मुनि को पता नहीं
कि कहां क्या हुआ। वे तो निर्भय हो अपने आत्म-ध्यान में लीन थे, उनके हृदय __ में एक अनुपम आनंद-शांत रस का ज्ञरना बह रहा था। वे अपनी जड़ काया को और क्यों ध्यान देने लगे। राजा अपने साथियों के साथ आगे चल दिया।
मार्ग में एक दिन एक सुन्दर हिरन को भागते देख राजा ने उसका बड़े जोरों से पीछा किया किन्तु वह एक सघन झाड़ीमें कहीं अदृश्य हो गयो गया । राजाने उसको खोजने में बहुत कुछ सिर पटका किन्तु वह हिरन को पा न सका । राजा शिकार के मोह में राह भटक गया, उसके साथी न मालूम किधर निकल गए, कुछ पता न लगा । प्रचण्ड धूप में उसकी दुर्दशा हो गई। कुछ दूर चल कर उसने एक नदी के तट अपना घोड़ा बांध, जलपान कर विश्राम किया । वहां निकट ही एक वटवृक्ष के नीचे एक मुनि ध्यान में खड़े थे, उनको देख राजा श्रीकान्त को फिर से सनक सवार हुई । उसने मुनि के दोनों कान पकड़ कर उनको जल में डुबाना चाहा किन्तु मुनि का शांत स्वभाव देख, उसी समय उसके विचार बदल गए । दयासे