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________________ अहं भाव के तज देने से, तृष्णा बंधन टूदे । आत्मभाव के हढ़ होने से, भेदभाव सब छूटे || हिन्दी अनुवाद सहित SHRAWAESARKARKSR ३२३ कई बुद्धि के बारदान स्वार्थी मांसाहार लोलुपी मूर्ख लोग कहा करते हैं कि राजा को अपने अधिकार की भूमि में पशु-पंखी, जलचर-जलमुर्गी, मगर-मत्स आदि का शिकार करना निर्दोष है, यह एक भ्रम है । यह उतना ही सत्य है जितना कि बालूरेत से सुगंधित तेल, उल्लु-पक्षी को सूर्यदर्शन और एक बावने-ठिगने पुरुष के हाथ से आकाश-गामी चंद्र-सूर्य को स्पर्श करनेकी कामना का सफल होना । प्रत्येक धर्माचार्य ने हिंसा-शिकार का घोर विरोध किया है । शिकारी स्वयं एक महान् आपत्ति में फंस वह दूसरों को भी भारी संकट में डाल देता है। इस का प्रत्यक्ष उदाहरण है, इस भूतल पर भटकते लूले लंगड़े कोड़ी निर्धन प्राणी, अरे ! वह बल-पुरुषार्थ किस काम का जिस से कि निःशस्त्र मूक वन-जन्तुओं का संहार हो। क्रूर मनोकामनाओं का फल कदापि शुभ नहीं होता | सच है, कोसा खाने से मुंह सदा का ही इंसा है। अतः प्राणनाथ ! मेरा आप से सादर अनुरोध है कि आप आज ही शिकार करने का त्याग कर दें। आपके इस दुर्व्यसन से मुझे और धरती माता को नीचे देखना पड़ता है । रानी ने अपने स्वामी श्रीकान्तराजा को बहुत ही समझाया किन्तु राजा का कठोर हृदय पिघल न सका-जैसे कि पुष्करावत मेघ की मधुर वृष्टि से मगसेलिया पाषाण की निर्लेपता । राजा ने चिढ़कर कहा- प्रिये : मेरे सामने अपनी डेढ-अकल न बधारो। सच है, सुसंस्कारों के अभाव में मानव को चिढ़ आना स्वाभाविक है, किन्तु रानी ने आपने साहस और कर्तव्य से जरा भी मुख न मोड़ा। अन्य दिवसे शत सात उल्लंठे परवयों रे, मृगया संगी आव्योगहन वन राय रे। मुनि तिहाँ कहे व्याधिपीड्यो कोढीयो रे, उल्लंठ ते मा देई घनघाय रे।साँ। ११ जिस ताड़े ते मुनि ने तिम नृपने हुवे रे हास्यतणो स्स मुनि मन ते रस शांत रे। करि उपसर्गने मृगयाथीं वल्या सातशे रे, नृप साथे ते पहोंता घर मन खाँत रे सा १२ अन्य दिवस मृग पूंठे धायो एकलो रे, राजा मृगलो पेठो नइतट रान रे। भूलो नृपते देखे नइतट साधुने रे,बोले नइजलमाँ मुनि माली कानरे ।साँ।।१३ काइक करुणा आवी कढव्यो नीरथी रे, घेर आवीने राणीने कही वात रे। सा कहे बीजानी पणहिंसा दुःख दियेरे, जनम अनंत दुःखदिये ऋषिघातरे।।साँ१४ * पंगु कुष्टि कुणित्वादि, इष्टवा हिसां फल सुधीः । निरागस्त्रसजन्तूनां, हिसां सकल्पस्त्यजेत् ।।१।। ___ वने निरपराधाना, बायु तोय तृणाशिनाम् । निधनम् मृगाणां मांसार्थी विशिष्येत् कथं शुनः ।।२।।
SR No.090471
Book TitleShripalras aur Hindi Vivechan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNyayavijay
PublisherRajendra Jain Bhuvan Palitana
Publication Year
Total Pages397
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size12 MB
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