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उदार मानव दे-दे कर अमीर बनता है, लोभी जोड़-जोड़ कर गरीब बनता है। ३२० WARMINORI
प्रोपाल रास प्रत्येक मानव अपने आत्मबल और श्रीसिद्धचक्र की आराधना से एक दिन समस्त कर्म-बन्धनों को क्षय कर अंत में परम-पद-मोक्ष प्राप्त कर लेता है। श्रीमान् यशोविजयजी महाराज कहते हैं कि यह श्रीपाल-रास के चौथे खण्ड की मननीयसातवीं ढाल सानंद संपन्न हुई। श्रीसिद्धचक्र के गुणगान से श्रोतागण और पाठकों को महान यश और कीर्ति प्राप्त हो ।
दोहा
इणी परे देइ देशना, रह्यो जाम मुनिचंद । तव श्रीपाल ते वीनवे, धरतो विनय अमंद ॥१॥ भगवन् ! कही कुण कर्म थी, बाल पणे मुज देह । महा रोग ए उपनो, कुग सुकते हुओ छेह ॥२॥ कवण कर्म थी में लही, ठाम ठाम वह रिद्धि । कवण कुकर्मे हूँ पड्यो, गुणनिधि जलनिधि जलमध्य ॥ ३ ॥ कवण नोच कर्मे हुओ, डूंब पणो मुनिराय । मुझने ए सवि किम हुओ, कहिए करि सुपसाय ॥४॥
सामना करना पड़ा ?:-शांत, दांत परम कृपालु राजर्षि अजितसेन मुनि की धर्मदेशना सुन सम्राट् श्रीयालकुंवर विभोर हो गये। उन्होंने राजर्षि को हाथ जोड़कर बड़ी नम्रता से प्रार्थना की-प्रभो ! मुझे बचपन में महा भयंकर कुष्ट रोग हुआ व उससे छुटकारा मिला, ऋद्धि-सिद्धि और सुयश की प्राप्ति हुई । में समुद्र में गिरा, मुझे एक अछूत हूंब जाति के कलंक का सामना करना पड़ा। यह क्यों हुआ, कुछ समझाने की कृपा करेंगें?
चौथा खण्ड - आठवीं ढाल
(सांभरी आ गुण मावा, मुज मन हीरना रे ) सांभलजी हवे कर्म विषाक कहे मुनि रे, काई कीधं कीधुं कर्म न जाय रे । कम वशे होय सुख दुःख जीवने रे, कर्म थी बलियो को नवि थाय रे ॥ सं.॥।॥