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________________ ___ इन्द्रिय सुख पराधीन है, बाधा सहित है, विनाशी है, बन्ध का कारण है और विषम है। हिन्दी अनुवाद सहित -542943046660३१९ से अपने अनुकूल पदार्थ और मान-संमान के व्यवहार से न तो प्रसन्न ही होता है, और न कभी अपमान, निंदा आदि कटु व्यवहार से शोकातुर-दुःखी होता है। वह समझ जाता है कि अपने को बहुत मत मानों, क्योंकि वही सारे रोग की जड़ हैं । मानना ही तो मान है । मान सीमा है । आत्मा तो असीम है और सर्वव्यापी है । निखिल लोका-लोक उसमें समाया है। वस्तु मात्र हम में हैं। हमारे ज्ञान में है। बाहर से कुछ पाना नहीं है । बाहर से पाने और अपनाने का प्रयत्न करना लोभ है । वह, जो अपना है उसीको खो देना है। मानने हमें छोटा कर दिया है, जानने देखने की शक्तियों को मंद कर दिया है। हम अपने ही में घिरे रहते हैं। इसी से धक्का लगता है, दुःख होता है। इसी से राग है, द्वेष है, संघर्ष है। सब को अपने में पाओ, भीतर के अनुभव से पाओ। बाहर से पाने का प्रयत्न करना माया है, झूठ है, वासना है। उसी को प्रभु ने मिथ्यात्व कहा है। आत्मा में यह जो अनादि के मिथ्या संस्कार जड़ और मृण्मय हो गये हैं, उनको हमें त्याग कर नवीन और अति पवित्र शुभ कर्मों के बीच से मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करना होगा। श्री अजितसेन राजर्षि ने कहा - श्रीपाल ! अपनी आत्म शक्ति के दुरुपयोग से अनादिकाल के संचित अशुभ कर्मों से छुटकारा पाने का यही एक सर्वश्रेष्ठ उपाय है कि मानब अपनी विशुद्धात्मा को समझे, इसी समय अपने दिव्य प्रात्मबल का सदुपयोग करना आरम्भ कर दें। सदा अपने शुद्ध आत्मा स्वरूप में रत रहे । मुमुक्षु आत्म-ज्ञानी मानव अपने लोक-व्यवहार को इन्द्रजाल चलचित्र के समान मिथ्या मानता है। जैसे कि एक मदारी के छूमंतर-हाथ की सफाई से बने रुपये । यदि छू-मंतर से रुपये बनना संभव हो तो क्या मदारी आजीवन घर घर हाथ पसारे १ नहीं। सच है. भौतिक सुख, सुख नहीं सुखाभास है, भव-प्रमण का एक अप्रशस्त मार्ग है। इस से बचना ही तो मानव-भव की वास्तविक सफलता है। प्रश्न-क्या संसार के भौतिक सुखों की तड़क-भड़क, चकाचौंध अनेक मायाजाल प्रपंचों के बीच रहकर भी बेचारा दयनीय मानव आत्मदर्शन में अनूठे आनंद अनुभव कर सकता है ? . उत्तर-अवश्य। मुमुक्षु आत्मार्थी मानव भोग, रोग, शोक या समर प्रांगण. रणभूमि के बीच ही क्यों न हो, वह वहाँ भी अपने विशुद्ध आत्म-स्त्रमाव में लयलीन रह कर एक अनुपम, अनुठे दिव्य आनन्द का अनुभव करता है। जैसे कि तंदूल-मगर मच्छ । यह मच्छ सदा लवण समुद्र के खारे जल में रह कर भी वहां सदा अति मधुर शीतल जल का ही पान करता है।
SR No.090471
Book TitleShripalras aur Hindi Vivechan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNyayavijay
PublisherRajendra Jain Bhuvan Palitana
Publication Year
Total Pages397
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size12 MB
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