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________________ लोग दिन-दिन मरते हैं, मगर जीने पाले यही समझते हैं कि हम यहां सदा रहेंगे। हिन्दी अनुवाद सहित ३१५ आयंबिल करना एक विकट समस्या है, इस व्रत से उसे वमनादि होने लगते हैं। इसी प्रकार एक मानव एक ही बैठक पर लगातार दो-चार घण्टे बैठकर शास्त्र-वाचन धारणा-ध्यान, जप आदि सानंद बड़े प्रेम से कर सकता है, किन्तु उसे भूख जरा मी सहन नहीं होती । अतः महापुरुषों का अभिप्राय है कि " तावत् हि तपो कार्य यावत् दुर्यानो न भवेत् "-तप वही श्रेष्ठ है, जिसकी आराधना से साधक के मन में बुरे संकल्प-विकल्प, दुयान न हो। तप का अंतिम फल है मंद-कषाय और भवभ्रमण का अंत होना । हाँ ! साधक स्त्री-पुरुषों को एक यह भी लक्ष्य रखना आवश्यक है कि मेरी साधना-क्रिया शुद्ध हैया अशुद्ध । क्रिया के पांच भेदः- (१) विपक्रिया (२' गरलक्रिया, (३) अन्योन्यअनुष्ठान क्रिया, (४) तद् हेतु क्रिया और (५) अमृत क्रिया | इन में तीन अशुद्ध और दो क्रियाएं शुद्ध हैं। यह मार्गदर्शन श्रमण वर्ग को ही लक्ष्य करके दिया गया है, किन्तु यह विधान वास्तव में प्रत्येक साधक-आराधना करने वाले मानव के लिए विशेष उपयोगी है । वे महानुभाव धन्य हैं, जिनका लक्ष्य शुद्ध क्रिया की ओर है। * १ विपक्रिया:-(१) मिष्ठान्न भोजन, श्रीफल, बताशे. नगद रुपये, थाली, लोटा, सुन्दर डिब्बियों आदि की प्रभावना के प्रलोभन अथवा भगत, बड़े धर्मात्मा कहलाने के मोह से सामायिक, प्रतिक्रमण, जिन पूजन, व्याख्यानश्रवण करना विक्रिया है। (२) इसी प्रकार मान-समान, क्रियापात्र की प्रसिद्धि प्राप्त करने के प्रलोभन से गृहस्थ को देखकर बिना श्रद्धा के उत्कृष्ट क्रिया का प्रदर्शन करना, रसीले-मिष्ठान, भोजन और पूज्य-आचार्य, उपाध्याय, पंन्यास, गणि आदि पद की लोलपता से विशेष अध्ययन कर, चारित्र की आराधना करना विक्रिया है। विष-मानव को अति शोन मृत्यु के घाट उतार देता है उसी प्रकार विषक्रिया करने वाले साधक साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविका व स्त्री-पुरुषों को मिवाय दुर्गति के और कुछ भी पल्ले नहीं पड़ता। २ गरलक्रिया:-देव-देवेन्द्र-इन्द्र, चक्रवर्ती राजा-महाराजा आदि का पद व ऋद्धि-सिद्धि पाने की लालसा से कठोर वन-नियम और शुद्ध चारित्र की आराधना करना गरल किया है। प्रश्न-विष और गरल में क्या अन्तर है ? उत्तर-विष मानव के तत्काल ही प्राण ले लेता है किन्तु गरल कालान्तर के बाद अपना प्रभाव बतलाता है। जैसे किसी को एक पागल कुत्ते ने काटा है तो वह न जाने कव उमल कर मानव के प्राण हर लेगा। इसो प्रकार साधक के तपोबल-चारित्र बल का फल उसे भविष्य में कुछ समय तक ऋद्धि-सिद्धि तक ही सीमित रह जाता है, किन्तु उसके भव-भ्रमण का अंत नहीं हो पाता । अतः साधक को गरलक्रिया से सर्वथा दूर रहना चाहिए। ३ अन्योन्य-अनुष्ठानक्रिया :-बिना श्रद्धा, सूत्र, अर्थ और द्रव्यानुयोग को समझे उदर.. पोषण-पेट भरने के प्रलोभन से दूसरों के देखा-देखी बन्दर कुदाना ओघ संज्ञा है, लोक प्रसन्नता के लिये धामिक क्रिया करना लोक संज्ञा, अर्थात् अन्योन्य-अनुष्ठान क्रिया है। यह क्रिया भो भववर्धक संसार में भटकाने वाली है, अत: व्रत-नियम आराधक महानुभाव और साधु-साध्वी को इस क्रिया से सर्वथा दूर रहना चाहिये ।
SR No.090471
Book TitleShripalras aur Hindi Vivechan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNyayavijay
PublisherRajendra Jain Bhuvan Palitana
Publication Year
Total Pages397
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size12 MB
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