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जा कुछ है सो आपमें देखो, हिये विचार । दर्पण परळही लखत, श्वान ही दुःख अपार ।। हिन्दी अनुवाद सहित
२२, क्षत्रियों के लिये “ सत्ता का गर्व और शिष्ट मर्यादा का अतिक्रम एक अभिशाप है। " विपयवासनाएं भौतिक पदार्थों की तृष्णा ही मानव को सहज ही अधोगति की ओर ढकेल देती है। लोग तो केवल हां में हां, मिलाने वाले हैं। इनका बिगड़े क्या?
मन मंदिर दीपक जिम्योरे, दीपे जाम विवेक । नाम न कहिये पग भवेरे; अंग अज्ञान अनेक ॥ पिताजी म करो झूठ गुमान, ए ऋद्धि अथिर निदान । जेवो जलधि उधान, पिताजी म करो झूठ गुमान ॥१॥ सुख दुःख सहुए अनुभवरे, केवल कर्म पसाय । अधिकं न ओछ तेहमां रे, कोई कोणे न जाय ॥२॥
मनुष्यके मन मन्दिर हृदय में यदि विवेक (दीपक) है, तो उसे संसार की कोई भी शक्ति परास्त नहीं कर सकती है। संभव है उसे कठोर परीक्षा का मामना पड़ । प्रकाश के सामने अन्धेरा टिक ही कैसे सकता है ? जीवन में अज्ञान क्रोध, मान. माया और लाभ का जागृत होना स्वाभाविक है किन्तु बुद्धिमान मनुष्य सदा सावधान रहते हैं। पिताश्री ! आप निरर्थक अभिमान न करें । ' में सत्ता के बल से किसीको सुखी या दुःखी कर सकता है। यह केवल एक भ्रांति है। प्राणी मात्र को अपने कर्मानुसार फल भोगना ही पड़ता है। सत्ता, ऋद्धि सिद्धि एवं वैभवादि आज हैं कल नहीं । समुद्र में भरती आकर लौट जाती है। उमसे क्या लाभ ? पिताजी : आप व्यर्थ ही गर्व न करें।
मजा कोपे कलकल्योरे. मांभलता ए वात | व्हाली पण वेग्ण थई रे, कीधो वचन विधान रे। बेटी भली रे भणी तू आज. तें लोपी मुन वात रे । बटो. विण माड्यु निज काज रे बेटी, त मूरख शिलाज रे ॥३॥ पाली ने मोटी करी रे, भोजन कूर कपूर । रयण हिंडोले हिंचतीरे, भोग भला भरपूर रे ॥४॥ बेटी. पाट पटम्बर पहेरणे रे, परिजन सेवे पाय । जगमा सहु जी जी करे, ए सवि मुज पमाय रे ॥६॥ बेटी०